Monday, September 3, 2018

ये बनारस है साहब....💐

तकरीबन एक साल सात महीने पहले ही ये अंश 
लिखा जा चुका था। लेकिन अधूरे सफर के चलते इसे ब्लॉग पर साझा नहीं किया। फिर लंबे अंतराल के बाद दोस्त के साथ सफर पूरा हुआ तो सोचा कि इस अंश को भी मुकम्मल कर देना चाहिए। शुक्रिया दोस्त🙇। हालांकि बनारस का सफर अभी भी अधूरा है। लेकिन बाबा विश्वनाथ और महाकाल के दर्शन और घाट के चंद घंटों के सफर से इसे पूरा मान लिया जाए।
तंग गलियों में आस्था का ऐसा सैलाब, जो एक दूसरे से लड़ने भिड़ने का भी अहसास नहीं कराता और अगर आप किसी से लड़ भी गए तो तो बदले में आपको एक मुस्कराहट मिलेगी। यहाँ कोई किसी पर नहीं चिल्लाता। सब बस प्यार बांटते रहते हैं। ......जी ये बनारस है साहब। 
.......कुछ घण्टो की बनारस नगरी की सैर ने किसी राजकुमारी से कम अहसास नही कराया। पहुचते ही रुकने का इंतज़ाम हो चुका था, यानि कि हम कहाँ और कैसे रुकेंगे , ऐसी कोई परेशानी न थी। तो भई हो गया यहाँ तक का किस्सा।
.....फिर निकल पड़े  भोलेनाथ के दर्शन को। सुना था और देखा भी वहां जबरदस्त भीड़ , लेकिन बाबा की ऐसी कृपा कि वहां भी कुछ स्पेशल सी फीलिंग। और बस देखते ही देखते हो गए दर्शन। इसके बाद उस पवित्र जल का पान जिसके लिए मान्यता है कि पंडित जी आक्रमण के समय शिवलिंग को लेकर उसी कुंड में कूद गए थे। कहा यह भी जाता है कि कुंड के जल का पान करने से आस्था, ज्ञान और सौभाग्य में वृद्धि होती है। खैर हमारी आस्था तो पहले से ही बहुत थी और विश्व्नाथ के दर्शन के बाद और भी प्रबल हो गयी। 
इसके बाद माँ अन्नपूर्णा के दर्शन। वहां भी विशेष व्यवस्था के तहत हमारे आँचल में माँ का आशीर्वाद। सबकुछ बहुत कम समय में और बहुत आसानी से हुआ।
 महज दो घंटे में बाबा के दर्शन फिर वापसी का सफर। ये काफी रोमांचकारी रहा। तमाम सारी चीजें होने के बाद जैसे ही स्टेशन पहुँचे, ट्रेन हमारा साथ छोड़ चुकी थी। फिर क्या था पूरे दिन के सफर की थकान हँसी में गुम गई। कहानी अभी खत्म नही हुई अगली ट्रेन आ गई और हमारा सफर शुरू। जीवन में बहुत सारी यात्राएं की लेकिन ये यादगार लम्हों में से एक बन गयी। इन सबके लिए और एक राजकुमारी वाली फीलिंग के लिए दोस्त आपका शुक्रिया। क्यूंकि अपार सहयोग और स्नेह से ये यात्रा बहुत अच्छी रही।
ये सफर का पहला हिस्सा है। 
....थोड़े अंतराल के बाद किसी ज़रूरी काम से बनारस फिर जाना हुआ। जिस दिन पहुंचे उसके अगले ही दिन घाट पर जाने का मौका मिला। सोमवार का दिन था, शाम पूरी तरह ढल चुकी थी और रात की आमद थी। हम पतित पावनी गंगा के समक्ष थे और मन में उलझनों की हज़ार तरंगें थीं। जो माँ गंगा के स्पर्श मात्र से धीरे-धीरे शांत होती प्रतीत हो रही थी। मन को शांत पाकर कुछ पलों के लिए गंगा की लहरों पर एकाग्र होकर खुद को पूरी तरह पतित पावनी को समर्पित कर दिया। ताकि विचारों का आवागमन थमें और खुद के साथ कुछ वक्त बिता सकूं। 
....यकीन जानिये ऐसा ही हुआ। मन पूरी तरह से आज़ाद था, किसी परेशानी या उलझन की कोई जद्दोजहद भी नहीं थी। चेहरे पर मुस्कुराहट थी और आँखों मे चमक। तमाम सवालों के जवाब मिल चुके थे। खुद के ही विरोध में खड़ी मैं अब मुस्कुरा रही थी और शायद बनारस जाना सार्थक हो चुका था कि तभी फ़ोन की घंटी ने मेरी तंद्रा तोड़ी। घड़ी में 11 बज रहे थे। रूम पर जल्दी पहुँचने का नियम टूट चुका था। लेकिन बनारस में खुद से मुलाकात भी हो चुकी थी...... इस बार के बनारस के सफर में काल भैरव के दर्शनों का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। तो इस तरह बतौर राजकुमारी शुरू हुआ बनारस का सफर अब मुकम्मल कब होगा या नहीं होगा? पता नहीं लेकिन अब तक के सफर की कहानी यहीं मुकम्मल होती है। 😊

उसका रूठना