Friday, January 22, 2021

ज़िद...

ज‍िद पर हैं आज हवाएं और सर्दियों में बला की ये धूूूप
 न जानें कौन हारेगा और न जाने कौन अब जीतेगा.....


बहुत वक़्त हुआ कुछ लिखा ही नहीं .... नहीं नहीं तुम ये मत समझना कि शब्द सारे मोहब्बत के अफसाने जैसे आये-गए हो गए। बस हुआ कुछ यूं कि प्रेम का वो पिटारा जो मुझमें जीवन का संचार करता है, उसकी चाभी कहीं गुम हो गई है। लेकिन आज जब मैंने खुले आसमान पर प्रेम की जिद देखी तो रहा नहीं गया। फिर से कोशिश की उस ज़िद को शब्दों में पिरोने की। चलो फिर तुम्हें भी बताती हूं... वो ज़िद थी बादलों की... जो पूरे आसमान पर छा जाने को बेसब्र था, वो ज़िद थी सर्द हवाओं की... जो सबको छू कर गुजरने को बेताब थीं.. वो ज़िद थी सूरज की जो बादलों की ओट छोड़कर हर तरफ अपनी रंगत बिखेर देना चाहता था। हर किसी पर अपनी ज़िद सवार थी। हर कोई बस अपने मन का कर लेना चाहता था... और तलाश बस इतनी थी कि किसी एक की ज़िद थोड़ी कम पड़ जाती तो फिर दो एक साथ हो लेते औऱ प्रेम का नया स्वरूप बन जाता.. शायद एक नई परिभाषा गढ़ जाती...



उसका रूठना