Friday, February 19, 2021

वो अलविदा....


 ...उसे खुद से अलग करना इतना तो मुश्किल नहीं था फिर भी जब अलविदा कहने की घड़ी आई तो ये इतना आसान भी तो नहीं था..लेकिन मिहिका की आदत ही थी ऐसी कि ज़िद के आगे उसकी खुद की हँसने-मुस्कुराने की चाहत भी पीछे छूट जाती थी..कुछ याद रहता था तो बस एक ज़िद कि अब अलविदा कहना है.. सिद्धार्थ और मिहिका अरसे पुराने दोस्त थे लेकिन जब मिहिका ने उसके साथ को अलविदा कहा तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं कि इस ज़िद भरे फैसले से उसे तकलीफ नहीं हुई। इतनी हुई कि बयां करने बैठे तो आंसू नहीं थमते थे। कितनी ही बार वो ज़ार-ज़ार रोई। आईने के सामने खुद से बातें करते वक़्त सिद्धार्थ की बातें याद की कि मिहिका क्या ये अलविदा जरूरी है? क्या ज़िंदगी भर ये दोस्ती यूं ही नहीं चल सकती? क्यों तुम्हें हर समस्या का हल अलविदा कहना ही लगता है? क्यों बस खत्म करने की ज़िद पर आमादा हो जाती हो। लेकिन मिहिका चुप... एकदम चुप.. ऐसा नहीं कि उसके पास जवाब नहीं था। ये बस मिहिका का अपना ही तरीका था प्रॉब्लम्स को डील करने का। दरअसल मिहिका को लगता था कि कभी भी कोई भी रिश्ता झूठ की बुनियाद पर ज्यादा देर नहीं टिक सकता और जब कभी वह इस झूठ की मिलावट से ज्यादा तकलीफ में होती तो बस उन रिश्तों को अलविदा कह देती बिना कुछ और कहे.... और सामने वाले को यह केवल मिहिका की रिश्तों को तोड़ने की ज़िद समझ आती। कभी किसी ने मिहिका के अलविदा के पीछे छिपे दर्द को समझने की कोशिश नहीं की और मिहिका ने भी किसी को इस लायक नहीं समझा कि दिल की हर बात कह पाती। तो बस अलविदा के साथ ही सिद्धार्थ के साथ सब खत्म फिर भी ज़ेहन में सब बाकी सा था।

मिहिका को लगा था कि अलविदा की फेहरिस्त में सिद्धार्थ पहला और आखिरी नाम था क्योंकि उसके अलावा ज़िंदगी में कोई और इतना करीब नहीं था। दोस्तों की लिस्ट लंबी तो थी लेकिन मिहिका ने सबके लिए एक दायरा तय कर रखा था तो इस तरह उसका होना सबके लिए ज़रूरी था पर उसके लिए किसी का होना न होना मायने नहीं रखता था। तो बस अपने हरफनमौला अंदाज़ में अपने में मस्त मिहिका की ज़िंदगी कभी पटरी तो कभी बेपटरी दौड़े जा रही थी। और इसी बीच एक ऐसा स्टेशन आ गया जहां उसे कुछ लंबे वक्त के लिए ठहरना था और ये ठहराव उसे फिर से सिद्धार्थ की भूली-बिसरी यादों से दो-चार कर देगा इसका उसे कतई अंदाज़ा नहीं था। वो तो बस मस्त मगन एक कलीग कम फ्रेंड से वाबस्ता थी। धीरे-धीरे वो कलीग से हटकर केवल दोस्त बन गया मिहिका को भी इसका पता नहीं चला। उसे वो बेगाना सा दोस्त अब खुद सा लगता था, उसकी बातें ऐसी होती थीं कि उसके साथ का वक़्त कब खत्म हो जाता पता ही नहीं चलता था... 

...शायद इसलिए उसका उदास होना मीहिका को बिल्कुल पसंद नहीं था। बल्कि वो तो उसके जीवन की सारी प्रॉबलम्स को  चुटकियों में दूर कर देना चाहती थी। कभी मंदिर में मन्नते मांगकर तो कभी उसको कोई ताकीद देकर। कुल मिलाकर उसका हँसना-मुस्कुराना मिहिका को अच्छा लगता था। और वह भी तो मिहिका ज्यादा बोले तो एकदम चुप हो जाता और न बोले तो उसे चिढ़ाने के लिए कुछ भी बोलता। तब चिढ़कर मिहिका भी बोलना शुरू कर देती। बड़ी प्यारी सी बॉन्डिंग हो गयी थी दोनों के बीच कुछ ही दिनों में। धीरे-धीरे कुछ बरस बीत गए और दोनों अब एक-दूसरे को अच्छा दोस्त कहने और महसूस करने लगे। दोनों की दोस्ती में अच्छी बात यह थी कि दोनों को ही एक-दूसरे से कोई उम्मीद नहीं थी। तो फिर एक दूसरे में खामियां भी नज़र नहीं आती थीं। बस दोनों को एक साथ होना अच्छा लगता था। मिहिका अक्सर कहती थी कि वो दोस्ती की लिस्ट में शामिल अब आखिरी नाम है। तब उसे समझ नहीं आता था कि वह ऐसा क्यों कह रही है जबकि मिहिका ही जानती थी कि सिद्धार्थ के फरेब के बाद किसी से दोस्ती न करने का खुद से किया वादा जो उसने तोड़ा था, तो अब किसी और तकलीफ से गुजरने को वो बिल्कुल तैयार नहीं थी और न ही किसी को इतना हक़ देना चाहती थी जो उसकी ज़िंदगी में अपनी जगह बना ले। फिर भी जाने कब इस दोस्त ने अपनी जगह बना ही ली थी।

... मीहिका इस बात को भले ही मानने से इंकार करती थी पर सच यही था। लेकिन वक़्त ने एक और करवट ली और अब वह इस दोस्त को अलविदा कह रही थी। इस बार भी बहुत कुछ सोचा नहीं था... बस किसी एक बात की चुभन के चलते कह दिया था अलविदा। हालांकि इस बार दर्द पहले से बेपनाह था। क्योंकि इस रिश्ते में कोई उम्मीद तो नहीं थी लेकिन दोनों को एक दूसरे का साथ पसन्द था। कई-कई घण्टों बिना किसी बात के भी फोन पर बातें  हो जातीं और कई बार तो बस दोनों बिना किसी बात के भी खामोशी में भी एक साथ हो लेते। और तो और ऑफिस की बोरिंग मीटिंग में भी फोन पर दूसरी ओर वो साथ होता और दोनों  मिलकर खूब बिना सिर-पैर की बातें करते और खूब ठहाके लगाते। तो ऐसे रिश्ते को अलविदा कहना बहुत तकलीफ दे रहा था औऱ उससे भी ज्यादा उस एक झूठ की तकलीफ थी जो बयां नहीं की जा सकती थी।....

...लेकिन अपने उसी ज़िद के अंदाज़ में मिहिका ने अपने उस आखिरी दोस्त को कह ही दिया अलविदा... क्योंकि झूठ से बड़ा फरेब कोई और कुछ हो भी तो नहीं सकता था... फर्क बस इतना था कि इस बार जब अलविदा कहा तो दोनों ही चाहते थे कि अलविदा का ये आखिरी पल कुछ देर ठहर जाता। उसने तो कहा भी था कि क्या सबकुछ यूं ही नहीं चल सकता। क्या ये ज़रूरी है? इस बार भी वह चुप ही थी औऱ बीता वक़्त याद करके इतना ही बोल सकी 'हां।' अब फोन तो कट चुका था, अलविदा कहने का सुकून भी था लेकिन आँसू थे जो थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे जाने क्यों???   लेकिन उन्हीं आंसुओ के साथ नम आंखों से उसने फिर कभी किसी पर भरोसा न करने और किसी से दोस्ती न करने की शपथ भी ले ली थी.....


उसका रूठना