Sunday, December 25, 2016
तुम्हारे इंतज़ार में
Friday, December 23, 2016
अधूरा मिलन
नदी आज बहुत बेताब थी,सुकून पाने की बेचैनी उसके जेहन को बार बार झकझोर रही थी। इसी दौरान उसकी नज़र किनारे पर पड़ी।बिना किसी उम्मीद,बिना किसी चाहत फिर भी हसरत भरी निगाहों से अपलक उसे निहार रही थी। मन में उठते जज्बातों को सख्ती से बांधकर रखने की सारी कोशिशें नाकाम लगने लगी। हलचल हुई, लहरें उठने लगीं और तभी एक लहर किनारे तक जा पहुँची। तमाम कोशिशों के बावजूद नदी खुद के भीतर उठने वाले तूफान को रोक न सकी और सैलाब में बह गए सारे जज्बात..... कुछ ही पल में हर ओर एक अजीब सी ख़ामोशी छा गयी। तूफान थम चुका था। नदी भी अब शांत थी।लेकिन किनारे को उसकी अनकही तकलीफ का अंदाज़ा हो चुका था। उसने आवाज देकर जाननी चाही नदी की बेचैनी और ख़ामोशी का सबब। बाँटने को उसका दर्द, उसके जेहन में उठते जज्बातों की ताकीद करनी चाही। लेकिन नदी अब भी चुपचाप थी। एक गहरी ख़ामोशी थी। अचानक ही कही तेज लहरे उठी जो किनारे से मिलने को आतुर थी। पल भर में उस तक पहुँच भी गई। लेकिन फिर नदी और किनारे का मिलन कहाँ होता है। उनके मिलने की बेताबी कहाँ ख़त्म होती है? साथ-साथ चलने, हर तकलीफ और तूफान का सामना करने और उसे महसूस करने के बावजूद कभी एक न हो पाने का दर्द दोनों को ही सालता है।।।फिर दोनों के बीच एक गहरी ख़ामोशी......
Tuesday, November 29, 2016
एक तुम्हारी याद
एक तुम्हारी याद....
एक तुम्हारी याद जब भी आती है मुझे तन्हा कर जाती है। भीड़ में भी मैं अकेली हो जाती हूं। एक तुम्हारी याद जब भी आती है। जानते हो तुम्हारे इंतजार में न जाने कितनी रातें मैंने जागकर बिताई हैं, सुनों तुम्हे याद तो होंगे ही न वो तुम्हारे साथ बिताए हुए लम्हें, वो तुम्हें भी तो दर्द पहुंचाते होंगे। तुम्हारी भी तो आंखें नम हो जाती होंगी न, जब तुम्हें मेरी याद आती होगी।
क्या जवाब दे सकोगे, क्या वो वक्त फिर लौट पाएगा जब तुम साथ थे। जानते हो जब भी ख्वाबों की तामीर बंधती है सिर्फ तुम नजर आते हो। जाग जाती हूं मैं रातों को अक्सर और फिर अपने आस-पास उसी ख्वाब को तलाशती हूं जहां तुम मेरे साथ मुस्कुरा रहे थे।
लेकिन दूर-दूर तक तुम नजर नहीं आते। तुम्हारी मुस्कुराती सूरत आंखों से ओझल सी हो जाती है, जानते हो मेरी आंखें भर आती हैं, जब भी तुम्हारा ख्याल मेरे जेहन में आता है। मैं पागलों सी तुम्हें तलाशती हूं, दूर तक तुम्हें ढूढने चली जाती हूं, लेकिन फिर उसी राह पर मैं अकेली बिल्कुल तन्हा लौटती हूं। जानते हो ऐसा कब होता है जब एक तुम्हारी याद आती है। लौट आओ कि तुम्हारे जाने के बाद अब याद बहुत रूलाती हैं। तुम्हारे साथ बिताए हुए खुशी के लम्हें भी मुझे बहुत सताते हैं। बार-बार मेरी आंखों में सैलाब सा उठता है, जिन्हें जमाने में रूसवाई के डर से मैं बाहर नहीं निकलने देती। लेकिन कब तक इस सैलाब को अपने दामन में संभालूंगी अब और नहीं बर्दाश्त होता, लौट आओ न......कि तुम्हारी याद बहुत तड़पाती है।
Sunday, November 27, 2016
तो कह दो वो सारी अनकही बातें,,,
कुछ अनकही बातें हैं मेरे और तुम्हारे दरम्यान। आज साथ बैठे हो, तो कह दो वो सारी अनकही बातें,,,
ना मालूम फिर साथ हो न हो, फिर मेरी-तुम्हारी मुलाकात हो न हो।
आज साथ बैठे हो, तो कह दो वो सारे अनकहे किस्से, जिन्हें मैंने, हां मैंने तुम्हारी निगाहों में पढा था।
खोल दो अपने दिल में छिपे हर राज के पन्नें, जिनपर तुमने लिखा तो बहुत कुछ पर आज तक कुछ कह न पाए। जाने वो कौन सा था अहसास, जिसे तुमने मेरे लिए महसूस किया और मैंने तुम्हारी आंखों में पढ़ा। कह दो, कह दो न आज वो सारी अनकही बातें।
जानती हूं तुम आज भी हमेशा की तरह, बस मुझे यूं ही देखते रहोगे फिर मेरे कुछ कहने पर कुछ फसाने यूं ही छेड़ोगो। जिनपर मैं मुस्कुराउंगी और तुम मुझे देखते रहोगो। फिर मैं कुछ पूछूंगी और फिर तुम जवाब मुस्कुराकर टाल दोगे। सच कहूं तो जानती हूं कि मेरे और तुम्हारे दरम्यान जो अनकहा है। उसे मुझे यूं ही समझना होगा क्योंकि फिर न तुम कुछ कहोगे और न मैं कुछ समझूंगी। लेकिन क्या यह अनकही बातों का दौर थम सकेगा। क्या तुम अपने दि में उठते जज्बातों को रोक सकोगे। जो कभी तुम्हारी आंखों में नजर आते हैं तो कभी तुम्हारी बातों में। इन अधूरी बातों को आखिर कह क्यूं नहीं देते तुम। क्यूं तुम इस अनकहे रिश्ते को, इन अनकहे जज्बातों को कोई नाम नहीं दे देते।
सुनो आखिर बार कह रहीं हूं, क्योंकि जानती हूं ये मुलाकात आखिरी है फिर न जाने कब किसी मोड़ पर तुम्हारी मेरी मुलाकात या बात हो न हो। पर जाते-जाते मैं मेरे हिस्से की अनकही बातें आज तुमसे कह देना चाहती हूं। सोचती हूं कि तुम कहो न कहो मैं कह जाती हूं। कि तुम होते हो तो ये चांद-सितारे मेरी जिंदगी भी रोशन कर जाते हैं। तुम होते हो तो ये वादियां मेरी अपनी लगने लगती हैं। या यूं कहूं कि तुम होते हो जिंदगी जिंदगी लगने लगती है। मेरा अनकहा तुम्हारे लिए बस इतना था, लेकिन जो मैं कहने पर आऊं तो सदियां कम लगने लगेंगी। लेकिन सोचती हूं कि मेरी अनकही बातों का दौर यहीं थमना चाहिए और कुछ अनकही बातों, ख्यालों और अहसासों को अपनी रूह में जज्ब करना होगा क्योंकि उन्हें कहना नहीं है मुझे, तुम्हे महसूस करना होगा।
अनकही
हम चलते रहते हैं, कुछ छूटते रहते हैं, कहीं छूट जाते हैं। गिरते पड़ते, उठते संभलते बहुत कुछ अनकहा अनसुना, कभी बाद के लिए इत्मीनान से सोचने समझने, नए कदम रखने से पहले पुराने पन्नों के पलटने की ख्वाहिश हूक बनकर मचलती है। तब यादों में टुकड़े मिलते हैं। उन टुकड़ों को टुकड़े न होने देना बल्कि उन्हें एक सिलसिला बना लेने की चाह में इस ब्लॉग को ज़रिया बना रही हूँ। जिसका नाम है "अनकही"। हां अनकही, और जब अनकही होगी तो अनसुनी की जगह अपने आप ही बन जायेगी। रोज़ रोज़ जिंदगी के छूटे हुए एहसासों, अनुभवों का रोज़नामचा होगा ये अनकही। हां सनद रहे, इन्हें पढ़ने की मैं आज़ादी देती हूँ, पर हस्तक्षेप की नहीं।
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