Monday, May 29, 2017

दूसरी औरत ..... अंतिम भाग

जब भी रात में जुगनु चमकते, जब भी भंवरे फूल पर मचलते, जब भी चांद बादल में छिपता, जब भी चांदनी छिटकती, जब भी शमां पर परवाना मचलता, जब भी मौजें बेकरार होकर उबलने लगतीं, नजमा को बस उसकी मोहब्बत याद आती।

गाड़ी की स्पीड सौ के पार जा रही थी। कभी अचानक से नजमा गाड़ी पर ब्रेक लेने लगती तो कभी अपनी ही रौ में चली जाती। लेकिन कब तक चलता ये सिलसिला। कहीं तो रूकना था ना उसे। पर कहां इससे तो वो बेखबर ही थी। तभी उसने गौर किया कि बड़ी बेसब्री से लोग आसमां पर नजर गड़ाए थे। गाड़ी साइड में पार्क की और नजर उठाई तो देखा चांद निकल आया। हां ये कोई मामूली रात नहीं थी। मुकद्दस रमजान की दस्तक थी। दुआ में हाथ उठे। बचपन से ही सुना था कि चांद देखकर मांगी गई मन्नत पूरी हो जाती है। जब से रेहान जिंदगी में आया था, उसकी खुशियों के सिवा कुछ और मांगा ही नहीं था। पांच बरस बीत गए उससे अलग हुए और सुहैल की जिंदगी में शामिल हुए। उसने कुछ नहीं मांगा। फिर आज अचानक दुआं के लिए हाथ कैसे उठ गए। क्या मांगें और किसके लिए? खुद तो आज वह आजाद हो गई थी हर बंधन से। हालांकि आजाद तो पहले भी थी। हां थी ही क्यूंकि सुहैल ने कोई बंदिश कहां लगाई थी उसपर। आज अलग था कुछ तो उसकी सोच। क्यूंकि असल में आज वो आजाद नहीं हुई थी। बल्कि खुद को खुशियों से हर तरह से दूर रखने की तैयारी कर चुकी थी।
उधर सुहैल मियां छत पर चांद का दीदार कर दुआ में अपनी बेगम साहिबा नजमा की सलामती और खुशियों की फरियाद कर रहे थे। तभी उनका मोबाइल बज उठा। दौड़कर देखा, सोचा कहीं नजमा की कॉल न हो। लेकिन फोन उनके दोस्त ने रमजान की मुबारकबाद देने के लिए किया था। सुहैल मियां फोन हाथ में लिए ही दरवाजे पर बैठ गए। जानें किसका इंतजार था। और नजमा ने तो कहा भी था कि वह अब नहीं लौटेगी। अब वह आजाद है, अब वह जिंदगी की हर खुशी को महसूसना चाहती है। क्यूंकि उसे तो प्रायोरिटी पसंद है। तभी उसके मन में भी कुछ सवाल कौंधे! मैंने कब उसे इग्नोर किया। मैं तो उसकी एक मुस्कुराहट पर दुनियां वार देता। कहां चूक हो गई। शायद मैं ही इस काबिल न बन सका कि नजमा अपने प्यार को भुलाकर मेरी बन पाती। इसी उधेड़बुन में सुहैल को जाने कब नींद आ गई।
लेकिन नजमा की आंखों में नींद नहीं थी। क्यूं नहीं थी वह भी नहीं समझ पा रही थी। शहर से तो बहुत दूर निकल चुकी थी। रात काफी हो चुकी थी। सो उसने रास्ते में ही एक होटल में रूकना मुनासिब समझा। ताकि कहां जाएगी और क्या करेगी इसके बारें में तो सोच ले। बहुत थक गई थी। लेकिन नींद आंखों से गुम थी। एक ही ख्याल में खोई थी कि इस वक्त सुहैल क्या कर रहा होगा। क्या खत पढ़ा होगा। फिर क्या कॉल की होगी। तभी याद आया कि उसने तो फोन बंद कर रखा है। तुरंत ही फोन ऑन किया और नोटिफिकेशन चेक करने लगी कहीं सुहैल मियां ने कुछ मैसेज या कॉल तो नहीं की। लेकिन ऐसा कोई नोटिफिकेशन नहीं था। अच्छा, तो उन्हें भी मुझसे आजादी ही चाहिए थी। क्या बात है शौहर साहब! मुस्कुराते हुए खुद से ही बात करने लगी।
नजमा ने गुलाबी डायरी उठाई और लिखने के लिए पन्ना खोला ही था कि रेहान के नाम पर हाथ फेर कर कलम वापस मेज पर ही रख दी। सोचने लगी कि इतने बरस बीत गए। उसने सुध भी नहीं ली। हां जब आखिरी बार उससे मुलाकात हुई थी तो कहीं कोई देख न ले इस डर में उसने नजमा का हाल तक नहीं पूछा। बस दोनों की नजरें टकराई थीं। कहीं होता है ऐसा कोई बेइंतहा मोहब्बत करने का दावा करे और यूं भूल जाए। लेकिन पांच बरस पहले तो ऐसा ही हुआ था। उसके बाद नजमा कैसे जी रही थी। इस बारें में रेहान ने न तो कभी जानने की कोशिश की और न ही कभी नजमा ने बताने की। उसे लगा था कि सबकुछ भूलकर वह भी जिंदगी में आगे बढ़ जाएगी। लेकिन ऐसा हो न सका। जब भी रात में जुगनु चमकते, जब भी भंवरे फूल पर मचलते, जब भी चांद बादल में छिपता, जब भी चांदनी छिटकती, जब भी शमां पर परवाना मचलता, जब भी मौजें बेकरार होकर उबलने लगतीं, नजमा को बस उसकी मोहब्बत याद आती। हां तभी तो सुहैल के लाख जतन के बाद भी वह उसे अपना नहीं पाई थी। पर जो भी हुआ उसमें उनका क्या कसूर था। उन्हें किस बात की सजा मिली। तभी नजमा के कमरे में रखा फोन घनघना उठा। मैडम कॉफी और तो नहीं चाहिए। हम्म। एक कप और भिजवा दीजिए।
हाथ में कॉफी मग लिए खिड़की के पास बैठी नजमा सोचती रही कि सुहैल मियां की हर चाहत, हर ख्वाहिश नजमा से है। उन्होंने तो उसकी मर्जी के बिना कभी छुआ तक नहीं। न सिर्फ मोहब्बत बल्कि यकीन भी दिया। पांच बरस में हर दिन हर पल नजमा की मर्जी से ही तो चल रहे थे। सुहैल को उसने क्या दिया? जब इस सवाल पर पहुंची तो जवाब नहीं था। और आज जब माह-ए-पाक रमजान की शुरूआत हुई। जब खुदा की नेमतें और बरकतें बरसने का दौर आया तो वो सुहैल को जिंदगी भर का गम दे आई। आखिर क्यूं? कहीं वो उसे चाहने तो नहीं लगी। नहीं-नहीं ऐसा कैसे हो सकता है। मोहब्बत तो बस एक बार होती है। दिल पर गर किसी का नाम लिख जाए तो फिर कोई और नाम नहीं लिखता। जिसपर ये रंग चढ़ जाए तो कोई और रंग नहीं फबता। और आज तो नजमा ने सबकुछ रेहान की पसंद का पहना था। सफेद मलमल का कुर्ता, उसपर गुलाबी चुन्नी, हाथों में कंगन, आंखों में काजल और होठों पर लाली। सब उसी की पसंद का तो था। फिर ये उलझन कैसी। कॉफी मग मेज पर रखते हुए नजमा वॉशरूम की तरफ दौड़ी। आंखों का काजल, होठों की लाली मिटा दी थी। हाथों का कंगन उतार दिया था। सफेद मलमल के कुर्ते की जगह लाल रंग का कुर्ता पहना। वहीं जिसपर सुहैल मियां कहते थे कि काजल, लाली और कंगन के श्रृंगार के बिना भी आपपर यह रंग बहुत जंचता है। बला की खूबसूरत लगती हैं आप। क्या है ये और यह सब क्यंू कर रही है वो? उसे तो आजादी चाहिए थी न किसी के भी सफेद और लाल रंग से। किसी भी रिश्ते से। अब तो वह उड़ना चाहती थी। फिर क्यूं सुहैल बार-बार याद आ रहा था। क्यूं दुआं के लिए हाथ उठे थे आज। ऐसे ही तमाम सवालों में उलझ गई थी नजमा और कुर्सी पर बैठे-बैठे ही जाने कब नींद के आगोश में चली गई।
सुबह जैसे ही आंखें खुली। नजमा ने बैग उठाया और कार शहर की ओर मोड़ दी। इस बार स्पीड नॉर्मल थी। दरवाजे पर पहुंचकर दस्तक देने को हाथ बढ़ाया ही था कि सुहैल मियां वहीं चौखट पर ही लेटे नजर आए। अल्लाह! इतना बड़ा गुनाह करने से बचा लिया आपने। ऐसे नेकदिल शौहर का दिल दुखाकर तो हमें दोजख में भी जगह न मिलती। ये क्या करने जा रहे थे हम। हमें माफ करें। इस फरियाद के साथ नजमा ने सुहैल को आवाज लगाई शौहर साहब अफ्तारी न कीजिएगा। उसने जैसे ही आंखें खोली। नजमा गले लग कर फफक पड़ी। बोली माफी के तो लायक नहीं हैं, लेकिन क्या अपनी जिंदगी में थोड़ी सी जगह दे सकेंगे। जिससे हम अपनी गल्तियों को सुधार सकें। शौहर साहब हम आपसे अतीत का हर पन्ना कहना चाहते थे, लेकिन जानें किस डर से कह न पाए। लेकिन आप जो भी सजा देंगे हम भुगतने को तैयार हैं। सुहैल नजमा को चुप कराते हुए बोला कैसी बातें करती हैं बेगम साहिबा रमजान पर इससे बेहतर तोहफा तो कोई हो नहीं सकता था। जो बीत गया है उसे क्यूं याद करना। जिंदगी की नई शुरूआत तो की ही जा सकती है। आप हमसें मोहब्बत करें न करें, यह आपका हक है। लेकिन हम आपसे बेपनाह प्यार करते हैं। इसकी तो मनाही नहीं होनी चाहिए। इस बार मुस्कुराते हुए सुहैल ने नजमा को अपनी बांहों में ले लिया।

Sunday, May 21, 2017

दूसरी औरत .....(भाग -2)



अरे ! मेरे चाँद ने आज पूरी रात आसमां के चाँद के साथ बिताई। उसके साथ रात का सफर कैसा रहा बेगम साहिबा? नज़मा खिलखिलाकर हँस दी, जी शौहर साहब शब्दों में बयां करू या मेरी निगाहों में पढ़ लेंगे आप। कहिये किस मानिंद कहूं। अजी हम तो आपकी आवाज के कायल हैं। वरना निगाहें काफी है सबकुछ समझाने को। लेकिन बेगम साहिबा ये आपके हाथों में डायरी कैसी? आज से पहले तो कभी नही देखी। बड़ी खूबसूरत है। छिपाकर रखा था आपने? डॉन की लाल डायरी को।। अरे अरे माफ़ कीजियेगा गुलाबी डायरी को। सुहैल से नज़रे चुराते हुए नज़मा ने कहा आपसे क्या छिपाना और क्यूं? चलिये कॉफी पीते हैं, वरना बातों के चक्कर में ये बेचारी ठंडी हो जायेगी और आपके दफ्तर जाने का वक़्त भी हो जायेगा। डायरी की बात पर नज़मा का जवाब सुनके सुहैल समझ चुका था, कि इसपर ज्यादा बात की तो उसे नज़मा की चुप्पी का सामना करना पड़ेगा। ये रिस्क तो वह कतई नहीं ले सकता था।
दोनों की कॉफी खत्म हो चुकी थी। लेकिन नज़मा के लिए तो कॉफी के साथ ही एक और जद्दोजहद शुरू हो चुकी थी। क्यूंकि घड़ी में नौ बजे थे और सायरा के साथ उसकी मुलाकात 11 बजे मुकर्रर थी। यानि कि दो घंटे बाद। इस वक़्त में उसे सुहैल का ब्रेकफास्ट और लंच दोनों ही तैयार करना था। हालांकि उसे इस बात की फिक्र ज्यादा थी कि वो क्या कहेगी सायरा से और कैसे समझाएगी उसे?
इसी दौरान सुहैल नज़मा की हेल्प करने किचन में पंहुचा। दसअसल ब्रेकफास्ट बनाने में उसकी दिलचस्पी नज़मा के साथ वक़्त बिताने के चलते थी। लेकिन उसे चुप देखकर सुहैल ने कॉफी मग नीचे गिरा दिया। उसके टूटने की आवाज पर नज़मा की भी तन्द्रा टूट गई। अरे शौहर साहब आप रहने दीजिए हम समेट लेते हैं, आपके हाथ में कहीं चुभ न जाये। तभी उसने नज़मा का हाथ पकड़ लिया और बोला - आपके दिल में जो भी है उसे कह क्यूं नहीं देती? क्यूं आप टूटती जा रहीं हैं। नज़मा पांच साल हो गए हैं हमारे निकाह को। आपके दिल में न सही पर क्या दिमाग में भी हम जगह नहीं बना पाए। पति न सही पर क्या दोस्त भी नहीं बन पाए हम। क्यूं आप यूँ चुप हो जाती हैं। पूरा- पूरा हफ्ता बीत जाता है आपकी ख़ामोशी टूटती ही नहीं। आपने सोचा है कभी हमपर क्या गुज़रती है। जब शाम की कॉफी हम साथ होते हुए भी अकेले अकेले पीते हैं। आपसे काम का जिक्र न हो तो आप तो चुप ही रहती हैं। और कभी इस कदर हमपर मेहरबान हो जाती हैं जैसे पूरी कायनात में आपसे बेहतर हमें कोई समझता ही न हो।
....बेगम साहिबा जिस नज़मा से हमारा निकाह तय हुआ था, वो तो ऐसी न थी। वो तो जिंदगी का हर लम्हा हँसते-खेलते जीती थी। उसके आस-पास तो हवाओं में भी खुशियां महकती थी। पहली बार जब आपको देखा तो फिदा तो हुआ ही था। लेकिन रश्क भी हुआ था आपसे, कि कोई कैसे हर पल मुस्कुरा सकता है। फिर खाला ने बताया कि मुस्कुराहट ही नहीं आपको गला भी बहुत खूबसूरत दिया है अल्लाहताला ने। गाने को कौन कहे हम तो आपकी खनकती आवाज को भी तरस जाते हैं। आपके दिल में जो भी हो कह डालिये। यकीन मानिए हमारे बीच कुछ न बदलेगा। कल से देख रहा हूँ आप फिर परेशां हैं। कई बार जानने की कोशिश की लेकिन आपके खामोश हो जाने के डर से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाया। पर अब और नही आपको बताना ही होगा। आखिर कौन सा दर्द आपको अंदर ही अंदर खाये जा रहा है।
...सुहैल का हाथ पकड़कर नज़मा ने कहा शौहर साहब ज़रा घड़ी तो देखिए पूरे दस बज चुके हैं। आपके दफ्तर जाने का वक़्त हो चुका है। आप लेट हो जाएंगे और हम अभी तक आपके लिए कुछ न बना सके। चलिये आप रेडी हो जाइये और हम अब लंच तैयार किये देते हैं। क्यूंकि ब्रेकफास्ट का वक़्त तो आपकी बेवजह की बातें ले गईं। सुहैल समझ चुका था कि लाख जतन के बाद भी उसे कोई जवाब नहीं मिलेगा,सिवाय ख़ामोशी के। किचन से निकलते वक़्त वो सिर्फ इतना ही कह पाया कि जब भी तुम ये सोचो कि मुझसे इस विषय पर बात की जा सकती है तो बेबाकी से कह देना। इस बात का एहतराम रखते हुए कि हमारा रिश्ता कमजोर नही पड़ेगा।
...कुछ ही देर में नज़मा ने लंच का डिब्बा सुहैल को कार में पकड़ाया और बाय बोलकर खुद तैयार होने चली गई। आज तो उसे हर हाल में ऑफिस जल्दी पहुँचना था। इसलिये नही कि सायरा की काउंसलिंग करनी थी बल्कि इसलिए कि आज उसे भी सारे सवालों के जवाब मिलने थे। पांच बरस की तकलीफ से निजात पानी थी। आज तो उसे आज़ादी मिलने वाली थी। मोहब्बत की बात से, उसके अहसास से, पाने की चाहत से और खोने की तकलीफ से। आज फैसला करने की उसकी बारी थी। आँखों में आँसू जरूर थे लेकिन जेहन में सुकून था।
...फिर क्या था नज़मा ने कबर्ड से सफ़ेद मलमल का कुर्ता निकाला। उसपर गुलाबी सिल्क की चुन्नी डाली। आँखों में काजल और होठों पर लिपस्टिक। हाथों में गुलाबी रंग के कंगन पहने, जो बरसों से ड्रेसिंग टेबल की रैक में सजे थे। खुद को आईने में देखा और मुस्कुराकर कहा-अल्लाह क्या बला की खूबसूरत लग रही हूँ। अगर इस तरह सुहैल साहब देख लेते तो जाने क्या-क्या कुर्बान जाते। खैर ये रूप और श्रृंगार किसके लिए ? ये सब तो रेहान के साथ हुई आखिरी मुलाकात में ही खत्म हो गया था। कुछ बचा था अगर मोहब्बत के नाम पर तो वो गुलाबी डायरी ही थी। जिसमें दर्ज थे उसके अहसास। हालांकि उन्हें भूलना आसान नही था। लेकिन याद रखना सुहैल के साथ नाइंसाफी जैसा लगता था।
...अलार्म बज उठा। हां नज़मा ने ही लगाया था साढ़े दस बजे का। ताकि बीते वक़्त में वो अगर गुम हो जाये तो घड़ी उसे बाहर निकाल लाये।।। मुस्कुराती हुई नज़मा चलने को तैयार हुई। आईने में खुद को फिर से निहारा। नज़र का काला टीका लगाया और एक खत सुहैल के स्टडी टेबल पर रखकर दफ्तर के लिए निकल गई। केबिन में बैठे हुए बमुश्किल दो मिनट ही बीते कि ऑफिस बॉय राजू ने बताया कि कोई सायरा मैडम आई हैं। हाँ ठीक है उन्हें भेज दो और जरा दो स्ट्रांग कॉफ़ी भी ले आना। जी मैडम जी, कहकर राजू चला गया और सायरा केबिन के अंदर। नज़मा ने पूछा कैसी हो अब? जी बेहतर। दवाइयों से नींद तो दे दी आपने, लेकिन सुकून कैसे लौटायेंगी? मुस्कुरा रही थी नज़मा और बोली कि कौन सा ?दूसरी औरत होने का! कहकर हँस पड़ी।
....तभी राजू पहुंचा, दो कॉफी लेकर। मैडम जी कॉफी। हाँ रख दो और ख्याल रहे जब तक मैं आवाज न दूँ किसी को अंदर मत आने देना। जी बिल्कुल। नज़मा ने कहा कॉफी पी लो। तब तुम्हें आसानी से मेरी बात समझ आयेगी। देखो सायरा, इस ज़माने ने दूसरी औरत को कभी औरत समझा ही नहीं। उसके जज़्बात, उसके अहसास, उसकी तकलीफ और उसके त्याग को कभी तवज्जो नहीं मिली। उसके लिए प्रेम बना ही नहीं। और अगर प्रेम की बात कर भी ली जाये तो वह केवल बंद कमरे में दैहिक सुख तक सिमट जाती है। समाज के सामने उसे स्वीकारना, इज़्ज़त देना ये सब बेमानी बातें कही जाती हैं। कई बार तो समाज के डर से पहचानने तक से इंकार कर दिया जाता है। फिर देती रहो तुम अपनी मोहब्बत की दुहाई। तुम्हारे दामन में तो कांटे ही गिरेंगे। क्यूंकि फूल पर तो पत्नी का अधिकार है। तुम तो दूसरी औरत हो।
....हाँ दूसरी औरत। वही जो इस बात का ख्याल रखती है कि उसके चलते उसकी मोहब्बत रुसवा न हो। वही दूसरी औरत जो बीवी तो नहीं लेकिन उसका श्रृंगार बस उसके प्रेम के ही नाम का। वही दूसरी औरत जिसका मुस्कुराना, हँसना, खिलना और महकना सब उसकी मोहब्बत के नाम का। लेकिन उसकी चाहत और तकलीफ का किसी के लिए कोई मोल नहीं। कुछ समझी सायरा, या अब भी तुम आसिफ के लिए पूरी जिंदगी तबाह कर देना चाहती हो। उसकी आँखों से आंसू बहते ही जा रहे थे। लेकिन नज़मा ने थामने के बजाय कहा कि खुद के त्याग और समपर्ण के लिए जितना भी रोना हो, रो लो। पर आज ही वादा कर लो कि तुम्हारी ख़ुशी, तुम्हारे गम और जिंदगी का हर अहसास केवल तुम्हारे खुद के लिए होगा। किसी और के लिए तुम इनका सौदा नहीं करोगी। केवल खुद के साथ और खुद के लिए जियोगी। किसी आसिफ की राह नहीं तकोगी। किसी भी बंधन में नहीं बंधोगी और नहीं बनोगी दूसरी औरत।
.... सायरा केबिन से जाने के साथ ही दूसरी औरत के किरदार को भी छोड़ आई थी। अब नज़मा की बारी थी। उसने हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट को रिजाइन लेटर मेल किया। कार की चाभी उठायी और निकल पड़ी अपनी आज़ादी की ओर। कभी पीछे न मुड़ने के लिए। उधर सुहैल दफ्तर से घर पहुँच चुका था लेकिन नज़मा का कुछ पता न था। उसने कॉल की तो नंबर नॉट रीचेबल आ रहा था। तो कॉफी बनाकर स्टडी रूम का रुख किया। सोचा काम में फंस गई होगी। या कुछ देर अकेले रहना चाहती होगी। सुबह मैंने भी जाने क्या-क्या कह दिया। सुहैल इन्ही ख्यालों में खोया था कि अचानक उसकी नज़र टेबल पर रखे खत पर पड़ी। उत्सुकतावश उठाया और बोल उठा लगता है बेगम साहिबा ने खत में इज़हार-ए-मोहब्बत की है। अगले ही पल कमरे में अजीब सी ख़ामोशी और सुहैल की आँखे नम।
शौहर साहब,
वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे,
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे।
अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया,
अभी अभी तो हम एक दूसरे से बिछड़े थे|
...सच कहा था आपने कि कुछ तो है जो हमें खत्म कर रहा है। अंदर ही अंदर खाये जा रहा है। हाँ है, एक सच। जिससे भागने की नाज़ हाँ नाज़ (ही पुकारते थे वो हमें।) ने बहुत कोशिश की। लेकिन भाग नहीं पाई। हालांकि आपकी मोहब्बत में भी कोई कमी न थी। साथ था, विश्वास था और सबसे अहम् इज़्ज़त थी हमारे लिए। लेकिन जब इश्क का रोग लग जाये तो ये सब कहाँ भाते हैं। यकीन मानिए हमनें निकाह के वक़्त ही आपको अपनाने का वायदा किया था खुद से। डायरी भी तो बंद कर दी हमेशा के लिए। लेकिन ये इश्क और मुश्क कहाँ छिपते हैं। मेरी क्लाइंट के रूप में जब मेरा अतीत सामने आया तो पूरी तरह से हिल गए थे हम। खुद को सँभालने की भी कोशिश की लेकिन आज सुबह आपके सवालों ने झकझोर दिया हमें। जाने क्यूं ऐसा लगा कि हम आपको धोखा दे रहे हैं। आपने हमसे मोहब्बत की तो इसमें आपका क्या कसूर। हम बेगम हैं आपकी, हक़ है आपका हमपर। लेकिन हमारी रूह पर भी हमारी पाक मोहब्बत का नाम है। उस मोहब्बत का जिसके लिए हम दूसरी औरत हैं। दिल को छलनी कर देने वाले इस शब्द से आज हम सायरा को आज़ादी दिला देंगे। फिर सोचा खुद को इस दलदल से बाहर क्यूं नहीं निकाल लेते? तभी ये फैसला लिया कि सबको आज़ादी मिलनी चाहिए। हमारे साथ आपको भी। जी अब आप हमारे लिए सुहैल मियां हैं। और हम जा रहे हैं जिंदगी को अपने लिए जीने। क्यूंकि जिससे मोहब्बत की उसके अल्फाज़ो में तो हम उसकी जिंदगी थे। लेकिन हकीकत में केवल दिल बहलाने और उसके जिंदगी के खालीपन को भरने का जरिया थे हम। अफ़सोस जब तक हमें ये समझ आया तब तक हम उसकी जिंदगी की दूसरी औरत बन चुके थे। और सुहैल मियां आप तो जानते हैं कि हम हमेशा प्रायोरिटी में रहना पसन्द करते हैं। बस फिर छोड़ दिया नाज़ ने उनका साथ और हमेशा के लिए नज़मा बनकर ही रह गई। और गुलाबी डायरी में बंद कर दिया मोहब्बत का अतीत। जानती हूं आपको ये सब पढ़कर तकलीफ होगी। लेकिन अब हम हर बंधन से आज़ाद होकर अकेले जीना चाहते हैं। खुद के लिए, जिंदगी की हर ख़ुशी को महसूसना चाहते हैं। हो सके तो माफ़ कर दीजियेगा और अपनी लाइफ में भी आगे बढ़ जाईयेगा। अल्लाह आपपर हमेशा मेहरबान रहे।
आपकी
नज़मा।।

Saturday, May 13, 2017

दूसरी औरत ......!

दूसरी औरत ...!




हां ठीक से याद है कुछ ऐसा ही बोला था। बल्कि यही बोला था कि वो दूसरी औरत है। मेरे बार-बार पूछने पर भी यही जवाब था उसका। बड़ी अजीब बात है इस शब्द को सुनते हुए जहां नजमा को तकलीफ हो रही थी वहीं सायरा थी जो बेबाकी से दोहराए ही जा रही थी। जानें क्यूं आज इस अकेलेपन में सायरा की बातें बेजा तकलीफ दे रहीं थीं। जेहन को लाख खंगालने पर सवाल करने के बावजूद कोई जवाब न मिला तभी सुहैल मियां आए और कमरे की खामोशी को महसूसते हुए बोले। क्या बात है आज तो घर में सन्नाटा है, लगता है कोई गायब है। चलो खैर मैं ही एक कप कॉफी का बना लेता हूं। नजमा के कानों में जैसे ही सुहैल साहब की आवाज गूंजी वो खुद को संभालने लगी और न चाहते हुए मुस्कुरा दी। बोली अरे शौहर साहब क्या फरमाइश है आपकी? नजमा प्यार से सुहैल को शौहर साहब ही बुलाती थीं। इस पर उन्होंने जवाब दिया कि कुछ नहीं आपकी खनखनाती आवाज सुनना चाहते थे। वरना कॉफी तो सरकार के लिए हम ही बनाए लाते हैं।
खैर आप हमारे ख्यालों में गुम क्यूं थीं?इक आवाज दी होती हम आपकी खिदमत में फौरन हाजिर हो जाते। नजमा मुस्कुराती हुई बोलीं अजी फिर काम कब कीजिएगा। सुहैल ने कहा काम तो होता रहेगा बेगम साहिबा। लेकिन आप कैसे इतनी जल्दी आ गईं आज? सब खैरियत से तो। जी, जी बिल्कुल सब बेहतर है। यूं ही काम जल्दी खत्म हो गया था। नजमा सोच रही थी जिस उलझन और तकलीफ को वो महसूस रही है क्या उसे सुहैल को बताना ठीक होगा। यह सोचते हुए वह किचन तक पहुंच गई और इसी उधेड़बुन में कॉफी भी बना डाली। लेकिन आज चाहकर भी किसी काम में उसका जी नहीं लग रहा था। जानें यह सायरा का गम था या बीते दिनों के कुछ पन्नें पलट गए थे, जो बार-बार नजमा को कुछ याद दिला रहे थे। जबकि वो तो सुहैल के साथ निकाह पढ़ते वक्त ही उन्हें बंद कर आई थी। महज बंद ही नहीं उन पन्नों को संदूक में बंद करके दरिया के हवाले कर आई थी। फिर आज वह बहते-बहते उसके दामन तक कैसे पहुंच गया। पांच बरस हो गए। सबकुछ बदल गया, जीने का तरीका बदल गया, मुस्कुराने की वजह बदल गई और भी वो सफेद मलमल की पोशाक का शौक भी अब तो न रहा। फिर अचानक दरिया में बहते-बहते बंद संदूक का ताला कैसे खुल गया और खुला भी तो उस तक क्यूं पहुंचा?

हैरत की बात है कि उसके पास सबकुछ बहुत करीने से आया और उसी रूप में। लेकिन यह तो अहदे-पारीना (पुराना वक्त)था। नजमा इस हिज्र (जुदाई) से कबका पीछा छुड़ा चुकी थी। अब तो उसे वस्ल (मिलन) की चाहत न थी। शिदृदत से सुहैल के साथ अपना रिश्ता निबाह रही थी। कॉफी ठंडी हो चुकी थी। अचानक नजर पड़ी तो नजमा दूसरी बनाने लगी और इस बार पूरे मन से। ताकि सुहैल के तैयार होने से पहले ही उसे दे दे। हां क्यूंकि शाम से रात होने को थी और इस वक्त दोनों ही सैर पर जाते थे। जहां टहलते-टहलते दोनों के बीच तमाम मुद्दों पर चर्चा होती। एक-दूसरे के कामकाज को समझने का शायद इससे बेहतर मौका हो ही नहीं सकता था। हां कई बार मौसम का जिक्र भी छिड़ता। लेकिन ऐसा जरा कम ही होता। क्यूंकि नजमा और सुहैल के बीच प्यार से ज्यादा इज्जत थी। दोनों एक-दूसरे के काम को समझते थे और आगे बढ़ने के लिए हौसलाअफजाई भी करतेे। लेकिन जानें क्यूं उनके बीच बेगम और शौहर वाला प्यार नहीं उमड़ता। हां जब कभी सुहैल नजमा की खूबसूरती पर कसीदे पढ़ता तो नजमा शरमां कर चली जातीं। बात यहीं तक रहती थी। इससे होता ये था कि सुहैल कुछ वक्त के लिए अकेला हो जाता और अकेलापन तो उसे काटने को दौड़ता था। नजमा से निकाह के लिए हां भी इसीलिए की थी कि वह बहुत हंसमुख और बोलने वाली लड़की थी। लेकिन निकाह के बाद तो उसे खिलखिलाकर हंसते भी नहीं देखा। बोलती जरूर थी लेकिन जब खामोश होती तो कई-कई दिनों तक सन्नाटा पसरा रहता। इसलिए सुहैल ये कोशिश करता कि नजमा को जो जैसा पसंद हो, वैसा ही करें। लेकिन वो मौका भी कहां देती थी कुछ पसंद-नापसंद पर बात करने का। तो सुहैल कामकाज की ही बातें कर लेता।

लेकिन आज नजमा बहुत बदली थी। सुहैल ने बहुत कोशिश की जानने की, जवाब फिर भी नहीं मिला तो नजमा से कॉफी का कप अपने हाथ में लेकर ऑफिस की बातें करने लगा। सुहैल पेशे सॉफ्टवेयर इंजीनियर था और नजमां काउंसलर थीं। दोनों के पेशे अलग थे। लेकिन फिर भी एक-दूसरे के बातें दिलचस्पी से सुनतें और सवाल-जवाब भी होते। सुहैल कयास लगा रहा था कि शायद काउंसिलिंग के दौरान ही कुछ हुआ है आज। कई बार कोशिश की लेकिन नजमा की खामोशी नहीं तोड़ सका। अचानक घड़ी पर नजर पड़ी, जो दस बजा रही थी। डिनर नहीं मिलेगा बेगम साहिबा। अरे हां कैसे बातें करते हैं! आज तो आपकी पसंद से बिरयानी बनाई है हमनें। दोनों ने खाना खाया और सोने चले गए। लेकिन नजमा को नींद कहां आनीं थी। दूसरी औरत उसके कानों के साथ ही जेहन में जो गूंज रहा था। कितनी सहज थी सायरा लेकिन वो क्यंू नहीं हो पा रही। नींद आंखों से कोसो दूर थी। हालांकि सुहैल सो चुका था।

....... नजमा ने उठकर अलमारी खोली। उसमें सालों से बंद एक बॉक्स को खोलकर डायरी निकाली और छत पर पहुंच गई। चांद की रोशनी में वो एक-एक पन्ना पलटती गई। यूं लग रहा था जैसे कोई उसके दिल पर बार-बार वार कर रहा हो और वह बचाने की जुगत। आंखों से आंसू बह रहे थे जो दूसरी औरत का दर्द बयां करने को काफी थे।
‘नहीं तुम मुझे नहीं छोड़ सकते। मोहब्बत करतीं हूं मैं तुमसे और तुम भी तो तुमने एक नहीं हजार बार कहा। तुम्हारे दिए हुए तोहफे, जिनके रैपर तक संभालकर रक्खें हैं मैंने। क्या वे सब झूठे थे?‘ मैंने ऐसा कब कहा और तुम मेरा हाथ क्यूं नहीं छोड़तीघ् रेहान इस कदर चीखा कि नजमा सहम सी गई और एक झटके में उसका हाथ छोड़ दिया। कहां पता था कि ये हाथ ही नहीं साथ भी छोड़ा है। रेहान उसकी पहली और आखिरी मोहब्बत था। आखिरी इसलिए क्यूंकि वो सुहैल की इज्जत तो करती थी, रिश्ते को ईमानदारी से निबाह भी रही थी। लेकिन मोहब्बत वो आज तक न कर पाई थी। जानें खुद को किस गुनाह की सजा दिए जा रही थी।
डायरी का दूसरा पन्ना पलटा जहां रेहान कह रहा था कि मोहब्बत तो ठीक है लेकिन वह उसका नहीं हो सकता। उसका हाथ पकड़ तो सकता है, थाम नहीं सकता। कुछ कदम तो चल सकता है लेकिन जिंदगी का सफर नहीं तय कर सकता। क्यूंकि वो तो पहले से ही असमत के साथ रिश्ते में बंधा था। निकाह किया था वो भी घरवालों की मर्जी से नहीं, अपनी मर्जी से, प्रेम में था असमत के संग। बेहद शदीद प्रेम में। फिर मैं क्या हूं और क्यूं शामिल हैं एक-दूसरे की जिंदगी में? क्या मैं तुम्हारा ‘एक्ट्रा मैरिटल अफेयर‘ हूं? नजमा के इस सवाल पर रेहान चुप था। बोलता भी क्या। उसकी आंखें नम थी और पन्ना तीसरा पलट चुका था।
मैं कुछ नहीं जानता। तुम्हें समझना होगा। हम वर्चुअली प्रेम में हैं। ये कैसा प्यार है और मैं नहीं मानतीं ऐसे किसी भी प्रेम को। फिर मैंने तो कभी आपको पाने की बात नहीं की। बस खोना नहीं चाहती, आप क्यूं डर जाते हैं। मैंने कब असमत का हक छीनने की बात की। मैंने कब आपसे अपने रिश्ते का सबूत मांगा। मैं समझ सकती हूं एक लड़की से उसका प्यार छीनने का दर्द। बावजूद इसके भी इतनी तल्खी रेहान क्यूं। हाथ पकड़ भर लेने पर इतनी बेरूखी। वो अब भी खामोश था और नजमा की आंखों से आंसू बहते ही जा रहे थे। उन्हें पोंछते हुए अगले पन्ने का रूख किया।
तुमने जब चाहा हम मिले। तुमने जब जैसे चाहा हम साथ रहे। जानते हो तुम्हारा होना ही मेरा गुमां था, कि तुम हो तो मैं अकेली नहीं। लेकिन तुमनें तो मुझसे मुझी को छीन लिया। मेरा वजूद बिखर जाएगा रेहान। तुम समझती क्यूं नहीं? अगर तुम्हें इस शहर में किसी ने मेरे साथ देख लिया तो लोग जानें कैसी-कैसी बातें करेंगे? कैसी बातें रेहान? कि तुम किसी दूसरी औरत के साथ थे या फिर तुम्हारी ............. कहेंगे। चुप हो जाओ नजमा, तुम पागल हो चुकी हो। नहीं अभी नहीं पागल तो पहले थी। अब तो होश में आईं हूं कि ‘मैं दूसरी औरत‘ हूं। हाहाहाहा......खिलाखिलाकर हंसी थी नजमा। शायद ये आखिरी खिलखिलाहट थी। मैं समझती हूं तुम्हारी मजबूरी रेहान काश! तुम भी समझ पाते। जा रहीं हूं हमेशा के लिए इसलिए नहीं कि तुम्हें पाना चाहूं और पा न सकूं, इसलिए क्यूंकि असमत का कोई कसूर नहीं। इसलिए भी क्यूंकि मैं तुम्हारी जिंदगी की ‘दूसरी औरत‘ हूं। अफसोस रहेगा कि कमबख्त मोहब्बत इस मोड़ पर ले आई जहां से पीछे जाने का कोई रास्ता ही नहीं। खैर तुम हमेशा खुश रहना।
...........सुनों जा रहीं हूं लेकिन क्या आज आपकी पसंद के इस सफेद मलमल के कुर्तें में मैं अच्छी नहीं लग रही थी। रेहान साहब एक आखिरी बार कॉम्पलीमेंट तो दे दीजिए कैसी लग रही हूं, तमाम दागों के साथ भी बेदाग इस सफेद मलमल के कुर्तें में। रेहान नजरंे झुकाएं खड़ा था और खुद को असमत की गुनहगार समझते हुए, आंसू बहाते हुए नजमा आगे बढ़ चुकी थी हमेशा के लिए। लेकिन जाते-जाते एक कागज का टुकड़ा छोड़कर गई। जिसपर लिखा था ‘हमें भी हिज्र का दुःख है न कुर्ब की ख्वाहिश, सुनों कि भूल चुके हम भी अहदे-पारीना‘ ये डायरी का आखिरी पन्ना था। क्यूंकि बाकी हर पन्ने पर बस एक शब्द लिखा था ‘ दूसरी औरत।‘ चांद ने धरती को अपने आगोश में ले लिया था और नजमा डायरी बंद करके अपलक उसे निहारे जा रही थी।
सोच रही थी कैसे समझाएगी कल सायरा को। हां कल ही तो उसे आने का कहा है। क्या कहेगी कि छोड़ दो आसिफ को। जबकि डिप्रेशन की हालत में भी वो बार-बार एक ही रट लगाए रखती है कि वो दूसरी औरत है तो है, लेकिन आसिफ को कभी नहीं छोड़ेगी। बावजूद इसके जब नजमा कहेगी भूल जाए वो उसको और सायरा पूछेगी क्यूंेघ् तो क्या ये कहेगी कि ‘दूसरी औरत‘ हो तुम और दूसरी औरत ‘औरत‘ नहीं होती। उसे मोहब्बत नहीं हो सकती। या उसकी मोहब्बत में कशिश की कमी है। या वो बस महज वक्त बिताने और दिल बहलाने वाली औरत है। क्या कहेगी आखिर वो सायरा से। जिससे वो डिप्रेशन से निकल आए। जबकि वो खुद पांच सालों से इसी से निकलने की तो जद्दोजहद कर रही थी। नजमा की इस उधेड़बुन में जानें कब सुबह हो गई। उसे अहसास तब हुआ जब सुहैल ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कॉफी का मग उसकी ओर बढ़ाया। मुस्कुराते हुए उसने मग अपने पास रखा और मन ही मन खुदा से दुआ की कि ‘दिल गया था तो ये आंखें भी ले जाता कोई, मैं फकत एक ही तस्वीर कहां तक देखूं.....। ‘

उसका रूठना