Sunday, December 25, 2016

तुम्हारे इंतज़ार में


तुम्हारे साथ जिंदगी चल रही थी अच्छी भली। सुबह की दो प्याली चाय से दिन शुरू होता था। पहले एक कप चाय और दोबारा मेरे पूछने पर तुम कहते हां अब तुम्हारे हाथों की एक कप चाय और चलेगी। फिर मेरा मुस्कुराकर किचन में चले जाना। हर पल हर लम्हा खूबसूरत और जीवंत। शाम को तुम्हारे लौटने का इंतज़ार मेरे चेहरे पर झलकता था। तुम्हारी गाड़ी का हार्न सुनकर मैं दौड़ी चली आती। फिर तुम्हारी बातों के साथ दो प्याली चाय का साथ। जानते हो वो चाय चाय नहीं जैसे भागती-दौड़ती जिंदगी से चुराये जाने वाले पल थे। जिनमें मैं 'मैं' नही 'हम'थे... चाय का कप उठाने से लेकर उसे खत्म करने तक मेरी नज़रे बस तुम्हें देखती रहती थीं और तुम अखबार में गुम रहते थे। सुनों तब वह मुझे किसी सौतन से कम नही लगता था। लेकिन आज जब मैं हम नही मैं हूँ तो हर लम्हा मुझे कचोट रहा है। सासें तो चल रही हैं लेकिन मैं ज़िंदा नही हूँ, तुम्हारी बातें,तुम्हारी अदा और वो दो प्याली चाय...सब खत्म हो गया तुम्हारे इंतज़ार में...

Friday, December 23, 2016

अधूरा मिलन

नदी आज बहुत बेताब थी,सुकून पाने की बेचैनी उसके जेहन को बार बार झकझोर रही थी। इसी दौरान उसकी नज़र किनारे पर पड़ी।बिना किसी उम्मीद,बिना किसी चाहत फिर भी हसरत भरी निगाहों से अपलक उसे निहार रही थी। मन में उठते जज्बातों को सख्ती से बांधकर रखने की सारी कोशिशें नाकाम लगने लगी। हलचल हुई, लहरें उठने लगीं और तभी एक लहर किनारे तक जा पहुँची। तमाम कोशिशों के बावजूद नदी खुद के भीतर उठने वाले तूफान को रोक न सकी और सैलाब में बह गए सारे जज्बात..... कुछ ही पल में हर ओर एक अजीब सी ख़ामोशी छा गयी। तूफान थम चुका था। नदी भी अब शांत थी।लेकिन किनारे को उसकी अनकही तकलीफ का अंदाज़ा हो चुका था। उसने आवाज देकर जाननी चाही नदी की बेचैनी और ख़ामोशी का सबब। बाँटने को उसका दर्द, उसके जेहन में उठते जज्बातों की ताकीद करनी चाही। लेकिन नदी अब भी चुपचाप थी। एक गहरी ख़ामोशी थी। अचानक ही कही तेज लहरे उठी जो किनारे से मिलने को आतुर थी। पल भर में उस तक पहुँच भी गई। लेकिन फिर नदी और किनारे का मिलन कहाँ होता है। उनके मिलने की बेताबी कहाँ ख़त्म होती है? साथ-साथ चलने, हर तकलीफ और तूफान का सामना करने और उसे महसूस करने के बावजूद कभी एक न हो पाने का दर्द दोनों को ही सालता है।।।फिर दोनों के बीच एक गहरी ख़ामोशी......

उसका रूठना