तुम्हारी पसंद और नापसंदगी से मेरा वर्णन नहीं किया जाएगा।
जानते हो या तुम्हें मैं खुद समझा दूं कि क्यूं?
क्यूंकि मैं ही आदि शक्ति हूं, स्वयं शंकर मेरे बिना अधूरे हैं।
ये सृष्टि मेरे द्वारा ही सृजित की जाती है।
लेकिन बदलती सदी में जब मैंने कुछ अधिकार पाने चाहे तो तुमने उसे चरित्रहीनता का नाम देकर अपनी पसंद बना लिया।
और जिन बातों को मैंने अपना गहना समझा उसे तुमने पिंजरे में कैद पंक्षी की संज्ञा दे दी। आखिर कैसे और क्यूं? दिया किसने तुम्हें यह अधिकार?
तुम कहते हो चरित्र गुलामी है एक बंधन है, शर्तों से तय होता है और तो और तुम्हारी नजर में चरित्र गैर कुदरती है, प्रकृति विरोधी है फिर तुम कैसे आए उसी चरित्र के ही तो चलते। जब दो देह मिलीं तो प्राकृतिक तौर पर तुम्हारा सृजन होना शुरू हुआ। इसके बाद जब तुम्हें जन्मनें की बात आई तो दर्द को चुप्पी में तब्दील करने की जो सलाहियत थी वो बंदिश नहीं थी। वो थी प्रकृति की सबसे अदभुत घटना को महसूसने की। दर्द में होने वाली आवाज में कहीं तुम्हारा अहसास न गुम हो जाए, इसलिए थी वो चुप रहने की हिदायत। तो जिया तुम्हें मैंने और तुम्हें मेरी चुप्पी ने यह अहसास दिलाना चाहा कि मैं कितनी मजबूत हूं और दर्द में तुम्हें मैंने किस तरह जिया है।
और परमानंद में मेरी खामोशी मेरा चरित्र को बचाने के लिए नहीं होती बल्कि उस वक्त मैं और तुम दो जिस्म और एक रूह होते हैं और जब रूह का मिलन हो तो आवाज से खलल पड़ता है। इसका मतलब ये हरगिज नहीं कि मुझे चरित्रहीनता का डर है तो खामोशी होती है। क्यूंकि यह वही तो समाज है जिसने मुझे तुम्हारे साथ एक अंजाने व्यक्ति के साथ शादी के बंधन में बांध कर सुहागरात मनाने के लिए कमरे में बंद किया था। फिर इनके सामने अगर मैं तुम्हें प्रेम करूं तो वो मेरी उन्मुक्तता होगी चरित्रहीनता नहीं।
और तुम कहते हो कि तुम्हें चरित्रहीन औरतें पसंद हैं फिर तो जग की हर नारी तुम्हें नापसंद होनी चाहिए। क्यूंकि जिसे तुम चरित्रहीनता की संज्ञा देकर पसंदगी बता रहे हो, वह हमारी स्वाधीनता है जो सदी के बदलने पर हमनें बदली है। कि जब हमारा जिसभी काम के लिए जैसा भी मन हो हम उसे बेबाकी से कर सकें, किसी को प्रेम करना हो, सेक्स करना हो या फिर बच्चे को जन्म देते वक्त चिल्लाने की बात हो। हम अपने फैसले स्वयं लें किसी की मर्जी से नहीं। लेकिन इसे तुमनें चरित्रहीनता की संज्ञा देने की हिमाकत भी कैसे की। यह महज स्त्री जाति के लिए उसकी स्वाधीनता है।
और क्या कहा था तुमने अपनी कविता में कि तुम्हें कुदरत पसंद है क्यूंकि उससे चरित्रहीन कुछ भी नहीं। तो बरखुरदार अगली बार ऐसा कहने और लिखने से पहले सौ दफा सोचिएगा प्रकृति का अपना चरित्र है, हवा का अपना चरित्र है जिसमें आप मदमस्त हो जाते हैं। पानी का अपना चरित्र है जिसके कलकल में आपको जीवन का संगीत सुनाई देता है। अग्नि का भी चरित्र ही है कि उसके समक्ष ही हर शुभ और अशुभ यानि कि जीवन मरण के कार्य संपन्न कराए जाते हैं।
तो अगली बार स्त्री को अपनी पसंद बताते समय चरित्रहीनता वाला टैग किनारे रख दीजिएगा।
जानते हो या तुम्हें मैं खुद समझा दूं कि क्यूं?
क्यूंकि मैं ही आदि शक्ति हूं, स्वयं शंकर मेरे बिना अधूरे हैं।
ये सृष्टि मेरे द्वारा ही सृजित की जाती है।
लेकिन बदलती सदी में जब मैंने कुछ अधिकार पाने चाहे तो तुमने उसे चरित्रहीनता का नाम देकर अपनी पसंद बना लिया।
और जिन बातों को मैंने अपना गहना समझा उसे तुमने पिंजरे में कैद पंक्षी की संज्ञा दे दी। आखिर कैसे और क्यूं? दिया किसने तुम्हें यह अधिकार?
तुम कहते हो चरित्र गुलामी है एक बंधन है, शर्तों से तय होता है और तो और तुम्हारी नजर में चरित्र गैर कुदरती है, प्रकृति विरोधी है फिर तुम कैसे आए उसी चरित्र के ही तो चलते। जब दो देह मिलीं तो प्राकृतिक तौर पर तुम्हारा सृजन होना शुरू हुआ। इसके बाद जब तुम्हें जन्मनें की बात आई तो दर्द को चुप्पी में तब्दील करने की जो सलाहियत थी वो बंदिश नहीं थी। वो थी प्रकृति की सबसे अदभुत घटना को महसूसने की। दर्द में होने वाली आवाज में कहीं तुम्हारा अहसास न गुम हो जाए, इसलिए थी वो चुप रहने की हिदायत। तो जिया तुम्हें मैंने और तुम्हें मेरी चुप्पी ने यह अहसास दिलाना चाहा कि मैं कितनी मजबूत हूं और दर्द में तुम्हें मैंने किस तरह जिया है।
और परमानंद में मेरी खामोशी मेरा चरित्र को बचाने के लिए नहीं होती बल्कि उस वक्त मैं और तुम दो जिस्म और एक रूह होते हैं और जब रूह का मिलन हो तो आवाज से खलल पड़ता है। इसका मतलब ये हरगिज नहीं कि मुझे चरित्रहीनता का डर है तो खामोशी होती है। क्यूंकि यह वही तो समाज है जिसने मुझे तुम्हारे साथ एक अंजाने व्यक्ति के साथ शादी के बंधन में बांध कर सुहागरात मनाने के लिए कमरे में बंद किया था। फिर इनके सामने अगर मैं तुम्हें प्रेम करूं तो वो मेरी उन्मुक्तता होगी चरित्रहीनता नहीं।
और तुम कहते हो कि तुम्हें चरित्रहीन औरतें पसंद हैं फिर तो जग की हर नारी तुम्हें नापसंद होनी चाहिए। क्यूंकि जिसे तुम चरित्रहीनता की संज्ञा देकर पसंदगी बता रहे हो, वह हमारी स्वाधीनता है जो सदी के बदलने पर हमनें बदली है। कि जब हमारा जिसभी काम के लिए जैसा भी मन हो हम उसे बेबाकी से कर सकें, किसी को प्रेम करना हो, सेक्स करना हो या फिर बच्चे को जन्म देते वक्त चिल्लाने की बात हो। हम अपने फैसले स्वयं लें किसी की मर्जी से नहीं। लेकिन इसे तुमनें चरित्रहीनता की संज्ञा देने की हिमाकत भी कैसे की। यह महज स्त्री जाति के लिए उसकी स्वाधीनता है।
और क्या कहा था तुमने अपनी कविता में कि तुम्हें कुदरत पसंद है क्यूंकि उससे चरित्रहीन कुछ भी नहीं। तो बरखुरदार अगली बार ऐसा कहने और लिखने से पहले सौ दफा सोचिएगा प्रकृति का अपना चरित्र है, हवा का अपना चरित्र है जिसमें आप मदमस्त हो जाते हैं। पानी का अपना चरित्र है जिसके कलकल में आपको जीवन का संगीत सुनाई देता है। अग्नि का भी चरित्र ही है कि उसके समक्ष ही हर शुभ और अशुभ यानि कि जीवन मरण के कार्य संपन्न कराए जाते हैं।
तो अगली बार स्त्री को अपनी पसंद बताते समय चरित्रहीनता वाला टैग किनारे रख दीजिएगा।