Saturday, October 6, 2018

चित्रकूट......

आजकल मैं ट्रिप पर हूं तो कोलकाता के सफर के बाद इस बार यात्रा की चित्रकूट की। हालांकि मैं चित्रकूट से तब से वाकिफ हूं जब मैं पांचवी कक्षा में पढ़ती थी। जानते हैं कैसे? दरअसल मेरे पापा कहानियां बहुत सुनाते हैं तो चित्रकूट की जानकारी भी कहानी के उसी खजाने का हिस्सा थी। अद्भुत..... नदी के तीरे बसे हुए मंदिर, आश्रम और इन सबको अपने आप में समेटे हुए पर्वतों की श्रृंखला। जहां तक नजर जाती है बस हरियाली ही हरियाली दिखती है। लाल-पीले, हरे-गुलाबी, नारंगी और बैंगनीं हर रंग के खिले फूल। बरबस ही सबकी नजरें अपनीं ओर खींचते हैं। जैसा मैंने सुना था बिल्कुल वैसा ही। तो इस सफर का स्पेशल क्रेडिट पापा जी को....क्यूंकि वो काफी अच्छे स्टोरी टेलर हैं। तभी तो चित्रकूट का जैसा चित्रण उन्होंने कहानियों के जरिए समझाया था, वो हूबहू वैसा ही निकला। तो इस वजह से पापा जी को बहुत शुक्रिया और आगे के सफर की कहानी......


 


..........सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में से एक, मंदाकिनी नदी के किनारे बसे तकरीबन 38.2वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ और चारों ओर पर्वत की श्रृंखलाओं से घिरी आध्यात्मिक नगरी का सफर शुरू हुआ कर्वी स्टेशन से। जहां से बाहर निकलते ही रामघाट के लिए टैंपों लगे रहते हैं। इनका सफर रातों-दिन चलता है। आप रात के दो बजे भी चित्रकूट पहुंचेंगे तो रामघाट के लिए आवागमन सुचारू रूप से चलता ही मिलेगा। रामघाट के बारे में ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि मंदाकिनी (अर्थात्, मंद गति से बहने वाली वह गंगा जो स्वर्ग में बहती है)के तीरे यह वह स्थान है, जहां प्रभु श्रीराम नित्य स्नान क्रिया करते थे। साथ ही इसी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास की प्रतिमा और भरत मिलाप मंदिर भी स्थित है। इसके अलावा घाट से कुछ ही दूरी पर जानकी कुण्ड माता सीता (जो कि जनक की पुत्री थीं तो इसी कारण से उन्हें जानकी कहा गया) स्नान करतीं थीं, वह भी स्थित है। उसी कुंड के पास रघुवीर मंदिर और संकट मोचन मंदिर भी है। इसके अलावा घाट पर किनारे लगी सजी-संवरी नावों को भी देखते ही बनता है।
......यकीन मानिए इन स्थानों के दर्शन करना बहुत सुखद अनुभव था। साथ ही मंदाकिनी स्नान, जो कि पहली बार किया था। बहुत अलग महसूस हुआ क्यूंकि जब भी गंगा या अन्य पवित्र नदियों में स्नान या ध्यान की बात आती थी तो सबसे पहले जेहन में उसकी साफ-सफाई का सवाल तैरने लगता तो कभी मन ही नहीं किया। जबकि इससे पूर्व भी कई बार तीर्थस्थलों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।  लेकिन इस बार जानें क्यूं मन खुद ही नदी के तीरे बैठने के बजाए उसके साथ हो लेने को किया। शायह यह इस पावन नदी का ही प्रताप है क्यूंकि ग्रंथों में कहा भी गया है कि यदि मनुष्य का जीवन मिला है और मंदाकिनी का स्नान नहीं किया तो नरदेह प्राप्त करने का कोई सुफल प्राप्त नहीं किया। (दूत कहै यम के नर सों, नर देह धरी न करे सतसंगा, नहिं हरि नाम लियों मुख सों, नहि तुलसी माल धरी उर अंगा।। नहिं दान करे, कबहू कर सो, नहिं तीरथ पाव धरे मतिभंगा, नर देह धरे को कहा फलु है, जो अन्हाई नहीं मन्दाकिनी गंगा।। )तो हो लिए हम मंदाकिनी के संग....लेकिन उस वक्त जो अहसास हुआ उसे बयां कर पाना थोड़ा मुश्किल है फिर भी प्रयास कर रही हूं। कुछ पलों के लिए सब सुखद था। न मन में नदी की साफ-सफाई का ख्याल आया और न ही हाइजीन का। बस नदी थी और मैं...हम दोनों के बीच था तो वो था सघन वार्तालाप जो मेरा नदी के संग था। तमाम सवालों के जवाब, जो जाने कब से उलझे थे। यूं लगा बस वही पल था जब वो सुलझे थे। मंदाकिनी की बात चल रही है तो यह जानना भी जरूरी है कि इसका उद्गम कैसे हुआ। तो मान्यता है कि महर्षि अति की सती तपस्विनी पत्नी अनुसुइयां के सतीत्व के प्रताप से ही यहीं से मंदाकिनी का उद्गम हुआ था। 
        बहरहाल उस सुखद अनुभूति के बाद बारी आती है श्री कामदगिरी पर्वत की। जो कि चित्रकूट धाम का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। मान्यता है कि इसी पर्वत पर रघुनंदन ने अपने वनवास काल में साढ़े 11वर्ष व्यतीत किए थे। चार द्वारों वाले कामदगिरी पर्वत की यूं तो भक्त परिक्रमा करते हैं, लेकिन यह भी कहा जाता है कि इस पर्वत के दर्शन मात्र से ही सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। रामचरित मानस में कहा भी गया है 'कामदगिरी में राम प्रसादा, अवलोकत अपहरत विषादा।' यानि कि दर्शन मात्र से ही सारी तकलीफें दूर हो जाती हैं।
     ...सफर आगे बढ़ा और स्फटिक शिला के दर्शन करने का मौका मिला, जहां मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम माता सीता के साथ विराजमान थे और जयंत ने काग रूप धारण कर सीता के चरणों में चोंच मारी थी। उस शिला पर बैठे संत भक्तों को यह कथा सुनाते हैं और माता सीता और प्रभु श्रीराम के चरण चिन्ह की परिक्रमा करके आर्शीवाद प्राप्त करने को कहते हैं। यह स्थान भी मंदाकिनी के तीरे ही बसा है।
            यहीं कुछ दूरी पर स्थित है ऋषि अत्री की पत्नी सती अनुसुइयां का आश्रम। जहां सुहागिनों को माता के सिंदूर और चूड़ी का प्रसाद देकर सदा सुहागन का आर्शीवाद मिलता है। यही नहीं मंदिर में तमाम प्रतिमाओं के जरिए कभी त्रिदेवों को माता अनुसुइयां के पालने में दिखाया गया तो कभी माता को देवी सीता को पत्नी धर्म का उपदेश देते हुए चित्रित किया गया है। इस तरह मंदिर में प्रतिमाओं के जरिए ंिहंदू धर्म-शास्त्रों में लिखी बातों का भान कराया गया है। यह आश्रम भी मंदाकिनी नदी के तट पर बसा है। यहां औरतें पहले स्नान करतीं हैं फिर मां अनुसुइयां को चूड़ी-सिंदूर चढ़ाकर अखंड सौभाग्यवती होने का आर्शीवाद लेती हैं।
     फिर हम पहुंचे गुप्त गोदावरी जो कि शहर से 18किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान भी हर तरफ वनों से घिरा हुआ है। प्रवेश द्वार संकरा जरूर है लेकिन सभी भक्त आसानी से अंदर प्रवेश पा लेते हैं। यहीं गुफा के अंत में एक छोटा सा तालाब है और उसे ही गोदावरी नदी कहते हैं। मंदिर से जब आप बाहर निकलते हैं तो एक दूसरी गुफा मिलती है जो लंबी और संकरी है। इसमें जैसे-जैसे आप प्रवेश करेंगे जल का स्तर बढ़ता जाता है। गुफा के अंत तक मार्ग बेहद संकरा होता जाता है और जल घुटनों के ऊपर तक पहुंच जाता है।  खास बात यह है कि इसमें जल प्रवाह हमेशा ही बना रहता है लेकिन किसी को यह नहीं पता कि इसका उद्गम स्थल क्या है? मान्यता है कि इस गुफा के अंत में ही प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण का दरबार लगता था।
.....एक बात जो चित्रकूट में मेरे मन को बहुत भायी कि वहां मंदिरों में दान की राशि के लिए कोई दबाव नहीं डाला जाता यानि कि कहां और कितना चढ़ाना है। आप स्वेच्छा से जितना चाहे दान कर सकते हैं। मेरी यात्रा बस यहीं तक थी और बेहद अद्भुत इसलिए थी क्यूंकि मंदाकिनी स्नान के वक्त नदी के संग जो भाव पनपा वह अवर्णनीय है। साथ ही प्रकृति का जो सौंदर्य वहां देखने को मिला वह बहुत ही सुखद है। तो रामचरित मानस के इस दोहे ’चित्रकूट की बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति, पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन रात...’ (चित्रकूट के पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादि की सभी जांितयां पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं देवता दिन-रात ऐसा कहते हैं। ) के साथ मैं चित्रकूट की पावन धरती को प्रणाम करती हूं और अपनी लेखनीं को विराम देती हूं।

उसका रूठना