Thursday, March 26, 2020

लॉकडाउन....

....सब बंद है आजकल। सड़कों पर सन्नाटा पसरा है, दूर-दूर से आती वो हॉर्न, कभी आपस में टकरा जाने से सॉरी या देखकर नहीं चल सकते जैसी आवाजें भी कहीं गुम हैं। सुबह-दोपहर या शाम कभी भी बेअंदाज़ चलने वाली हवाएं भी जैसे ठहर गयीं हैं। मेरे घर के बाहर लगे कदंब की शाखों पर बैठने वाले परिन्दों की चहचहाहट भी कहीं गुम है। ये सब कुछ जो आज बंद है, कभी ऐसा ही परिदृश्य देखने की कल्पना थी। मने सबकुछ शांत हो दूर-दूर तक शोर न हो। लेकिन जब यह कल्पना साकार हुई तो जाना कि शोर की भी अपनी अहमियत है। ये जिंदगी का वो हिस्सा है जिसके बिना कुछ नहीं बहुत कुछ अधूरा है। हालांकि ये सब बंद हमारे फिट रहने के लिए ही तो है। लेकिन शोर का लॉकडाउन शायद परिंदो को भी तकलीफ दे रहा है तभी तो आज गौरेया का वह घोंसला कदंब की शाखा पर नहीं.... टूटकर नीचे पड़ा था। शायद परिंदे भी अपने पुराने देश लौट गए...😒

उम्मीद है ये बंद कोरोना जैसी गंभीर आपदा से जल्दी ही निजात दिला देगा...और फिर शोर का लॉकडाउन भी खत्म होगा। सड़कें फिर से गुलज़ार होंगी..हवाएं फिर से गुनगुनाएँगी... परिंदे फिर से चहचहायेंगे...खामोशी के बाद आने वाला ये शोर सबके चेहरों पर मुस्कुराहट और सुकून लेकर आएगा।।।

Wednesday, January 29, 2020

अनकहा सा एक रिश्ता


मुग्धा सोफे का कवर ठीक कर रही थी कि रेडियो पर गाने का ट्रैक चेंज हुआ और 'बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम' बजने लगा। वह ज़ोर -ज़ोर से सीमा-सीमा चिल्लाने लगी। सीमा उसके घर की मेड है। घर में मुग्धा के अलावा वह रहती है। जिसपर उसे खुद से भी ज्यादा भरोसा है कि वह घर अच्छे से संभाल लेगी और उसके लिए अदरक वाली कड़क चाय भी तो बस सीमा ही बना सकती थी। एक यही तो आदत थी जो मुग्धा में आज भी बाकी थी। या यूं कह लें कि इसी ने मुग्धा में मुग्धा को बाकी रखा था। वरना वो तो कबका पूरी तरह खत्म हो चुकी थी। वीर ने प्रेम में जो छल किया था उसके बाद उसका फिर से मुस्कुराना नामुमकिन सा था। 

खैर सीमा बिना मुग्धा से पूछे रेडियो सेट की फ्रीक्वेंसी चेंज करने लगी कि तभी मुग्धा ने कहा बंद ही कर दो इसे। सीमा ने सवाल भरी नजरों से मुग्धा की ओर देखा कि मुग्धा ने उसकी ओर देखे बिना अदरक वाली दो कप चाय की फरमाइश रख दी। सीमा भी अब समझ चुकी थी कि उसे कुछ नहीं पूछना क्योंकि मुग्धा जब बहुत तकलीफ में होती तो अदरक वाली दो कप चाय पीती। मानों चाय नहीं कोई नशा हो। सीमा किचन में चाय बनाने चली गयी और मुग्धा अपने कमरे में रखे उस साइड सोफे पर बैठ गयी जहां से बाहर सब कुछ हरा- हरा नज़र आता था। 

ये माथेरान की वो जगह थी जहां वह बरसों से अपने अतीत से निकलने की कोशिश में लगी थी। लेकिन कितना निकल पाई यह तो वह खुद भी आज तक नहीं समझ पाई। कहानियां लिखती थी मुग्धा 'अनामी' के नाम से। उसके लेखन को खूब सराहना मिलती थी मगर केवल कागज़ों और मेहनताने के रूप में। अनामी कौन है कोई नहीं जानता। सिवाय मुग्धा और सीमा के। सीमा ने कई बार कहा भी दीदी ऐसे काहे करती हो। जाओ न बाहर लोगों से मिलने , लोग आपकी लेखनी को कितना पसन्द करते हैं। आपसे मिलकर सबको अच्छा लगेगा और आपको भी। लेकिन मुग्धा पर इन बातों का कोई असर नहीं होता। जाने क्या चाहिए उसे। खैर दूर हरे पत्तों पर पड़ी बूंदों को देखकर मुग्धा अतीत में चली गयी। जब उसे ये गाना ' बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम' बहुत पसन्द था। हो भी क्यों न आखिर वह वीर से बेइतन्हा मोहब्बत जो करती थी। यही वजह थी कि सालों बाद भी वह न उसे भुला पाई और न अपनी बेपनाह मोहब्बत को। उसे खुद से अलग करने के बाद वह पूरी तरह से टूट चुकी थी। लेकिन ऐसा न करती तो करती भी क्या। वीर अब शादीशुदा था और पिता बनने वाला था। हालांकि यह बात उसे वीर की बजाय उसके घरवालों से पता चली थी। तब मुग्धा को बहुत तकलीफ हुई थी कि ये खुशी की बात वीर ने उसे क्यों नहीं बताई। जबकि वह तो कभी वीर और उसकी पत्नी के बीच नहीं आयी। बड़ी से बड़ी परेशानी भी मुग्धा ने अकेले झेली थी। कभी वीर की कोई हेल्प नहीं ली थी। और तो और वह तो अक्सर ही वीर को कहती रहती कि वह किस तरह से अपनी पत्नी को स्पेशल फील करा सकता है। लेकिन वीर उसे कभी समझ ही नहीं पाया...

वीर कहता था कि वह बहुत इंटलैक्‍चुअल है लेकिन उसका इमोशनल होना इन सब पर भारी पड़ता है। वह अक्‍सर ही कहता था कि तुम बिना सोचे-समझें जो  दूसरों की मदद करती रहती हो न यह सही नहीं है। मुग्‍धा रिश्‍तों को रिव्‍यू करना सीखो। तभी समझ आएगा कौन अपना है कौन बस स्‍वार्थ के लिए तुमसे जुड़ा है। मुग्‍धा इन ख्‍यालों में खोई ही थी कि अचानक ठंडी हवा का एक तेज झोंका उसे अतीत से वर्तमान में ले आया। 

चेहरे पर दर्द भरी मुस्‍कान लिए मुग्‍धा सोचने लगी वीर तुम कितना सही कहते थे न, रिश्‍तों को रिव्‍यू करना चाहिए। काश! कि मैनें तुम्‍हें भी रिव्‍यू किया होता.....सबके लाख समझाने के बाद भी तुम्‍हें पागलों की तरह पूजती रही। सोचती हूं कि मुझे तुमसे सिवाय दो पल की बातों के सिवाय चाहिए ही क्‍या था? मेरे प्रेम के लिए बस थोड़ी सी इज्‍जत ही तो चाही थी कि तुम सबके सामने भी मेरा सम्‍मान कर सको। अपनी पत्‍नी के सामने भी हमारी पाक दोस्‍ती को इज्‍जत दे सको। लेकिन तुमने कहा कि और क्‍या चाहिए तुम्‍हें मेरे घरवाले मेरा इकलौता सबसे करीबी दोस्‍त और उसके परिवारवाले तुम्‍हें अच्‍छे से जानते हैं। तुम्‍हारा आना-जाना है। सब तुम्‍हें समझते हैं। लेकिन कहां वीर? किसने समझा? तुम क्‍या जानों तुम्‍हारे घरवालों ने कितनी बार मेरे आत्‍मसम्‍मान को ठेस पहुंचाई। मैंने कभी यह सोचकर न ही उनसे और न ही तुमसे कुछ कहा कि वो बड़े हैं अंजाने में हो गया होगा ऐसा। लेकिन वीर मेरे लिए मेरा आत्‍मसम्‍मान कितना जरूरी है यह बात तो तुम जानते हो न.... 

सिर्फ जरा सी ही तो बात थी बड़े चाचू के साथ... जिसने ऐसी ठेस पहुंचाई कि फिर मैंने कभी उन्‍हें चाचू कहकर नहीं बुलाया। कितनी बार उन्‍होंने मुझसे और पिता जी से माफी मांगी। हजार मिन्‍न्‍नतें कीं कि मजाक में वह ऐसा कह गये। लेकिन जब मेरे आत्‍मसम्‍मान की बात थी तो पिता जी ने भी मुझपर कोई दबाव नहीं डाला। तुम तो यह भी जानते थे न और अपनी फैमिली को भी जानते हो। याद है तुमने एक बार खुद ही कहा था कि मेरे चलते तुम्‍हारे स्‍वाभिमान को भी ठेस पहुंची है, मैं माफी मांगता हूं उन सबके लिए... कितने फरेबी थे तुम... 

हर बार माफी मांगकर अपनी गलतियां भुला देते थे। मैं बांवरी समझ ही नहीं पाई। सच कहूं तो बहुत अफसोस है कि जिंदगी के वो खूबसूरत साल मैंने यूं ही तबाह कर दिए। 
 दीदी .....चाय.... मुग्धा दीदी चाय .... 

सीमा की आवाज कानों में गूंज रही थी लेकिन गले से आवाज ही नहीं निकल पा रही थी। तभी सीमा ने कंधे पर हाथ रखकर एकदम झकझोर दिया। अब चाय पी लो दीदी। वरना फिर कहोगी ठंडी हो गई। एकदम गरमागरम चाय में मजा आता है। फिर मैं गर्म करूंगी तो टेस्‍ट नहीं आएगा। तब कहोगी दूसरी बनाओ। फिर कहोगी पहली वाली वेस्‍ट हो गई। अरे... अरे... अरे.. बस कर दादी मां.. पीती हूं चाय... 

पर एक कप ही बनाई क्‍या... नहीं दीदी, जानती हूं आपका  एक कप में कहां भला होगा? स्‍वाद भी नहीं आएगा। दूसरी भी है पर पहले जे तो पी लो। मुग्‍धा मुस्‍कुरा उठी.. तभी सीमा ने कहा मुग्‍धा दीदी एक बात पूछूं सच बताओगी। मुग्‍धा बोली ऐसा भी क्‍या है जो तुझे नहीं पता सीमा। सब तो जानती है तू मेरे बारे में... खुली किताब सी जिंदगी है, जो पन्‍ना चाहे पढ़ ले।  

सीमा ने कहा न दीदी, जे बात तो नहीं पता, अच्‍छा चल पूछ ही ले, वरना तेरे पेट में दर्द हो जाएगा। दीदी तुमने शादी काहे नहीं की। एक पल को कमरे में जैसे सन्‍नाटा पसर गया हो। मुग्‍धा एकदम शांत। चेहरे पर जैसे कोई भाव ही न हों। सीमा ने दोबारा वही सवाल किया। मुग्‍धा ने कहा कोई मिला ही नहीं जो मुझे समझ पाता। सच में दीदी। ऐसा भी क्‍या, आप तो इतनी अच्‍छी हैं, आपको कोई नहीं मिला, ये तो हो ही नहीं सकता। सच बताओ न, नहीं सीमा... तू न कुछ भी बोलती है। तभी सीमा के फोन की घंटी बजी और उधर से आवाज आई कि बेटी को तेज बुखार हो गया है। वह कुछ कहती कि मुग्‍धा बोल पड़ी तू घर जा और आराम से बच्‍ची का ध्‍यान रख। कुछ जरूरत हो तो बता देना, मैं खुद ही आ जाऊंगी। बिल्‍कुल भी परेशान मत होना। सीमा जा चुकी थी। लेकिन उसके सवाल ने आज मुग्‍धा के अतीत का एक ऐसा पन्‍ना खोला, जिसके सहारे उसने फिर से जिंदगी को जीना सीखा था।

 'माधव' हां यही नाम था उसका। मुग्‍धा जब वीर के छल से निकलने की कोशिश कर रही थी तो अंजाने में ही सही लेकिन माधव ही उसका सहारा बना था। दोनों एक साथ एक ही ऑफिस में काम करते थे। दोनों की सीटें भी अगल-बगल ही थीं। एक साथ काम करते हुए काफी वक्‍त बीत चुका था लेकिन मुग्‍धा की किसी से कोई खास बातचीत नहीं होती थी। उसे खुद भी हर किसी से बात करना कभी पसंद नहीं था। कॉलेज के दिनों में भी तो यही हाल था। हर कोई उससे बात करना चाहता था लेकिन वह सिलेक्‍टेड लोगों से ही बात करती थी। तभी कॉलेज में सब उसे तीखी मिर्ची बुलाते थे। खैर तब तो वह इन सारे कॉम्‍पलीमेंट्स को खूब इंजॉय करती थी। बिल्‍कुल अल्‍हड़ सी थी मुग्‍धा लेकिन वीर के प्रेम ने उसे अलग ही रंग दे द‍िया। डोर बेल बज रही थी। मुग्‍धा ने सोचा कि सीमा तो चली गई। अब कौन होगा... हां क्‍योंकि उसके घर सीमा के अलावा कोई नहीं आता-जाता। किसी से मिलना-जुलना उसे अब रास नहीं आता। वह केवल अपनी लेखन में ही व्‍यस्‍त रहती है।

खैर दरवाजे पर जाकर देखा तो कुछ बच्‍चे थे कैंसर रोगियों के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे। मुग्‍धा ने उन्‍हें बिना अपने नाम की रसीद लिये ही दान किया और चुपचाप ही वापस आ गई। 

किचन में जाकर चाय कप में निकाली और फिर बालकनी में झूले पर आकर बैठ गई। चाय का पहला घूंट पीते ही उसे फिर से माधव से अपना अनकहा रिश्‍ता याद आ गया। उसके साथ का वक्‍त तो मन की गति से भी तेज बीत जाता था। उस वक्‍त मन करता था कि बस वक्‍त ठहर जाए। माधव वीर की तरह नहीं था लेकिन उससे कई गुना ज्‍यादा समझदार था। केवल मुग्‍धा के लिए नहीं बल्कि हर किसी को समझता था। संस्‍कारी था, भावनाओं की कद्र करता था। न मालूम कैसे वो मुग्‍धा को इतनी अच्‍छी तरह समझने लगा था। उसका साथ, उसकी बातें और उसकी समझ दोनों ही मुग्‍धा को बहुत अच्‍छी लगती थीं। लेकिन न तो यह आकर्षण था और न ही प्रेम... इस बारे में मुग्‍धा बिल्‍कुल क्लियर थी। हां माधव का साथ अच्‍छा लगता था। उसके साथ का ही असर था कि वह वीर के फरेब से बाहर निकल सकती। वरना कोशिशें तो मुग्‍धा ने कई बार की थीं लेकिन बार-बार वीर के छल में उलझ जाती थी। 

माधव का साथ इतना खूबसूरत लगता था कि कई बार तो अपना काम छोड़कर मुग्‍धा बातों में ही उलझी रहती। जानती थी वह खुद के साथ-साथ उसे भी डिस्‍टर्ब करती है। लेकिन फिर सोचती दोस्‍ती में इतना चलता है। कई बार कुछ दिनों के लिए बात करनी बंद भी कर देती। यह सोचकर की कहीं उसे माधव की आदत सी तो नहीं हो गई है। लेकिन शायद हो ही गई थी। तभी तो छुट्टियों में कभी फोन को हाथ न लगाने वाली मुग्‍धा एकाध बार तो फोन इसलिए चेक कर लेती कि शायद माधव का कोई मेसेज पड़ा हो। मुग्‍धा उसके सहारे जीने की कोशिश कर रही थी। खुद को तराशना चाह रही थी। लेकिन एक डर था उसके मन के भीतर कहीं माधव चला गया तो। ऐसी तो नहीं थी मुग्‍धा। अपने फैसलों के प्रति बिल्‍कुल फर्म रहती थी। लेकिन माधव को लेकर वह अजीब कशमकश में थी। मुग्‍धा सोचती थी कि माधव जैसा जीवनसाथी हो तो शायद जिंदगी और भी बेहतरीन हो सकती है। उसे लगता था कि जो इंसान कुछ वक्‍त में उसे इतने अच्‍छे से समझ सकता है, वह हमेशा उसका साथ देगा। कभी भी अकेले मंझदार में नहीं छोड़ेगा। उसका सम्‍मान करेगा और उसके जीवन में हमेशा ही आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहेगा।..... लेकिन मुग्‍धा माधव के मन की बात नहीं जानती थी और न ही माधव जैसी समझदार थी। उसे पता था तो बस इतना कि वह माधव के लायक नहीं है। शायद यही सोचकर वह माधव से कुछ नहीं कह पाई। वरना माधव ही ऐसा था जिससे मुग्‍धा ने वीर की हर बात बड़ी सहजता से शेयर कर ली थी। बिना किसी डर और झिझक के। 

 फिर से डोर बेल बजी। मुग्धा अनमने मन से उठी और दरवाजे तक पहुँची। जैसे ही दरवाजा खोला अवाक रह गयी। दरवाजे पर माधव था.... वह चुप थी कि  माधव बोल पड़ा हेलो मैडम कैसी हैं, कहाँ खो गयीं? मुझे पहचाना नहीं क्या? मैं माधव हूं आपका मित्र। अंदर नहीं बुलाएंगी क्या??? अरे रुको तो सही एक साथ इतने सवाल फिर शुरू हो गए तुम.... चलो मतलब मैं याद हूं।। तो क्या बाहर ही बातें करोगी? अरे नहीं नहीं कैसी बात कर रहे हो। आओ न अंदर आओ।  माधव तुम इस शहर में कैसे... कुछ नहीं तुम्हें ढूंढ़ता हुआ आ गया।। अच्छा... मुग्धा  एकटक माधव को देखती रह गयी। अपने चेहरे को पोछते हुए वह बोला कुछ लगा है क्या ... आप फिर से उस दिन की तरह देखने लगीं। याद है न वह दिन, जब हम चाय पर गए थे और आप एकटक मुझे देखें ही जा रहीं थी। तब भी मैंने पूछा था पर आपने जवाब नहीं दिया था। जानता हूं आज भी नहीं देंगी। लेकिन क्या चाय भी नहीं पिलाएंगी?... 

मुग्धा बोली अरसे से किचन में नहीं गई पता नहीं कैसी बनेगी।। पर बनाती हूं... अरे आप तो अन्नपूर्णा हैं जो भी बनाएंगी वो लाजवाब ही होगा। मुग्धा मुस्कुराते हुए बोली फिर शुरू। माधव ऐसे ही मुग्धा से बातें करता था। उसपर वह कहती तो थी कि क्या बेवजह की तारीफ़ें करते हैं पर असल में उसे माधव का यह अंदाज़ बहुत अच्छा लगता था। जब कभी वह ऐसे न बात करे तो मुग्धा को अज़ीब सी बेचैनी होने लगती।... माधव छेड़ते हुए बोला चाय... चाय...

मुग्धा ने कहा तुम यहीं बैठो मैं बनाकर लाती हूं। उधर माधव साइड टेबल पर पड़ी किताब के पन्ने पलटनें लगा और मुग्धा चीनी - चायपत्ती ढूंढकर चाय बनाने लगी। दो ही मिनट बीते थे कि माधव किचन में आ गया और आवाज़ दी मुग्धा। वह पलटी तो देखा कि माधव घुटनों के बल बैठा था। इतने में ही माधव ने ज़ेब से मुग्धा की पसन्द का जैस्मिन फ्लावर निकाला और तपाक से बोल उठा मुग्धा क्या मुझसे शादी करोगी...फिर हम लोग मिलकर चाय बनाएंगे... मुग्धा मुस्कुराई और बोली तो फ्लर्ट करने की आदत आज तक है... माधव ने कहा नहीं मैं बहुत सीरियस हूं और तुम्हारे लिए ही मैंने आज तक शादी नहीं की। अच्छा....ऐसा है तो फिर मेरी भी हां....

उसका रूठना