Saturday, October 6, 2018

चित्रकूट......

आजकल मैं ट्रिप पर हूं तो कोलकाता के सफर के बाद इस बार यात्रा की चित्रकूट की। हालांकि मैं चित्रकूट से तब से वाकिफ हूं जब मैं पांचवी कक्षा में पढ़ती थी। जानते हैं कैसे? दरअसल मेरे पापा कहानियां बहुत सुनाते हैं तो चित्रकूट की जानकारी भी कहानी के उसी खजाने का हिस्सा थी। अद्भुत..... नदी के तीरे बसे हुए मंदिर, आश्रम और इन सबको अपने आप में समेटे हुए पर्वतों की श्रृंखला। जहां तक नजर जाती है बस हरियाली ही हरियाली दिखती है। लाल-पीले, हरे-गुलाबी, नारंगी और बैंगनीं हर रंग के खिले फूल। बरबस ही सबकी नजरें अपनीं ओर खींचते हैं। जैसा मैंने सुना था बिल्कुल वैसा ही। तो इस सफर का स्पेशल क्रेडिट पापा जी को....क्यूंकि वो काफी अच्छे स्टोरी टेलर हैं। तभी तो चित्रकूट का जैसा चित्रण उन्होंने कहानियों के जरिए समझाया था, वो हूबहू वैसा ही निकला। तो इस वजह से पापा जी को बहुत शुक्रिया और आगे के सफर की कहानी......


 


..........सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में से एक, मंदाकिनी नदी के किनारे बसे तकरीबन 38.2वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ और चारों ओर पर्वत की श्रृंखलाओं से घिरी आध्यात्मिक नगरी का सफर शुरू हुआ कर्वी स्टेशन से। जहां से बाहर निकलते ही रामघाट के लिए टैंपों लगे रहते हैं। इनका सफर रातों-दिन चलता है। आप रात के दो बजे भी चित्रकूट पहुंचेंगे तो रामघाट के लिए आवागमन सुचारू रूप से चलता ही मिलेगा। रामघाट के बारे में ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि मंदाकिनी (अर्थात्, मंद गति से बहने वाली वह गंगा जो स्वर्ग में बहती है)के तीरे यह वह स्थान है, जहां प्रभु श्रीराम नित्य स्नान क्रिया करते थे। साथ ही इसी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास की प्रतिमा और भरत मिलाप मंदिर भी स्थित है। इसके अलावा घाट से कुछ ही दूरी पर जानकी कुण्ड माता सीता (जो कि जनक की पुत्री थीं तो इसी कारण से उन्हें जानकी कहा गया) स्नान करतीं थीं, वह भी स्थित है। उसी कुंड के पास रघुवीर मंदिर और संकट मोचन मंदिर भी है। इसके अलावा घाट पर किनारे लगी सजी-संवरी नावों को भी देखते ही बनता है।
......यकीन मानिए इन स्थानों के दर्शन करना बहुत सुखद अनुभव था। साथ ही मंदाकिनी स्नान, जो कि पहली बार किया था। बहुत अलग महसूस हुआ क्यूंकि जब भी गंगा या अन्य पवित्र नदियों में स्नान या ध्यान की बात आती थी तो सबसे पहले जेहन में उसकी साफ-सफाई का सवाल तैरने लगता तो कभी मन ही नहीं किया। जबकि इससे पूर्व भी कई बार तीर्थस्थलों के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।  लेकिन इस बार जानें क्यूं मन खुद ही नदी के तीरे बैठने के बजाए उसके साथ हो लेने को किया। शायह यह इस पावन नदी का ही प्रताप है क्यूंकि ग्रंथों में कहा भी गया है कि यदि मनुष्य का जीवन मिला है और मंदाकिनी का स्नान नहीं किया तो नरदेह प्राप्त करने का कोई सुफल प्राप्त नहीं किया। (दूत कहै यम के नर सों, नर देह धरी न करे सतसंगा, नहिं हरि नाम लियों मुख सों, नहि तुलसी माल धरी उर अंगा।। नहिं दान करे, कबहू कर सो, नहिं तीरथ पाव धरे मतिभंगा, नर देह धरे को कहा फलु है, जो अन्हाई नहीं मन्दाकिनी गंगा।। )तो हो लिए हम मंदाकिनी के संग....लेकिन उस वक्त जो अहसास हुआ उसे बयां कर पाना थोड़ा मुश्किल है फिर भी प्रयास कर रही हूं। कुछ पलों के लिए सब सुखद था। न मन में नदी की साफ-सफाई का ख्याल आया और न ही हाइजीन का। बस नदी थी और मैं...हम दोनों के बीच था तो वो था सघन वार्तालाप जो मेरा नदी के संग था। तमाम सवालों के जवाब, जो जाने कब से उलझे थे। यूं लगा बस वही पल था जब वो सुलझे थे। मंदाकिनी की बात चल रही है तो यह जानना भी जरूरी है कि इसका उद्गम कैसे हुआ। तो मान्यता है कि महर्षि अति की सती तपस्विनी पत्नी अनुसुइयां के सतीत्व के प्रताप से ही यहीं से मंदाकिनी का उद्गम हुआ था। 
        बहरहाल उस सुखद अनुभूति के बाद बारी आती है श्री कामदगिरी पर्वत की। जो कि चित्रकूट धाम का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। मान्यता है कि इसी पर्वत पर रघुनंदन ने अपने वनवास काल में साढ़े 11वर्ष व्यतीत किए थे। चार द्वारों वाले कामदगिरी पर्वत की यूं तो भक्त परिक्रमा करते हैं, लेकिन यह भी कहा जाता है कि इस पर्वत के दर्शन मात्र से ही सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। रामचरित मानस में कहा भी गया है 'कामदगिरी में राम प्रसादा, अवलोकत अपहरत विषादा।' यानि कि दर्शन मात्र से ही सारी तकलीफें दूर हो जाती हैं।
     ...सफर आगे बढ़ा और स्फटिक शिला के दर्शन करने का मौका मिला, जहां मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम माता सीता के साथ विराजमान थे और जयंत ने काग रूप धारण कर सीता के चरणों में चोंच मारी थी। उस शिला पर बैठे संत भक्तों को यह कथा सुनाते हैं और माता सीता और प्रभु श्रीराम के चरण चिन्ह की परिक्रमा करके आर्शीवाद प्राप्त करने को कहते हैं। यह स्थान भी मंदाकिनी के तीरे ही बसा है।
            यहीं कुछ दूरी पर स्थित है ऋषि अत्री की पत्नी सती अनुसुइयां का आश्रम। जहां सुहागिनों को माता के सिंदूर और चूड़ी का प्रसाद देकर सदा सुहागन का आर्शीवाद मिलता है। यही नहीं मंदिर में तमाम प्रतिमाओं के जरिए कभी त्रिदेवों को माता अनुसुइयां के पालने में दिखाया गया तो कभी माता को देवी सीता को पत्नी धर्म का उपदेश देते हुए चित्रित किया गया है। इस तरह मंदिर में प्रतिमाओं के जरिए ंिहंदू धर्म-शास्त्रों में लिखी बातों का भान कराया गया है। यह आश्रम भी मंदाकिनी नदी के तट पर बसा है। यहां औरतें पहले स्नान करतीं हैं फिर मां अनुसुइयां को चूड़ी-सिंदूर चढ़ाकर अखंड सौभाग्यवती होने का आर्शीवाद लेती हैं।
     फिर हम पहुंचे गुप्त गोदावरी जो कि शहर से 18किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान भी हर तरफ वनों से घिरा हुआ है। प्रवेश द्वार संकरा जरूर है लेकिन सभी भक्त आसानी से अंदर प्रवेश पा लेते हैं। यहीं गुफा के अंत में एक छोटा सा तालाब है और उसे ही गोदावरी नदी कहते हैं। मंदिर से जब आप बाहर निकलते हैं तो एक दूसरी गुफा मिलती है जो लंबी और संकरी है। इसमें जैसे-जैसे आप प्रवेश करेंगे जल का स्तर बढ़ता जाता है। गुफा के अंत तक मार्ग बेहद संकरा होता जाता है और जल घुटनों के ऊपर तक पहुंच जाता है।  खास बात यह है कि इसमें जल प्रवाह हमेशा ही बना रहता है लेकिन किसी को यह नहीं पता कि इसका उद्गम स्थल क्या है? मान्यता है कि इस गुफा के अंत में ही प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण का दरबार लगता था।
.....एक बात जो चित्रकूट में मेरे मन को बहुत भायी कि वहां मंदिरों में दान की राशि के लिए कोई दबाव नहीं डाला जाता यानि कि कहां और कितना चढ़ाना है। आप स्वेच्छा से जितना चाहे दान कर सकते हैं। मेरी यात्रा बस यहीं तक थी और बेहद अद्भुत इसलिए थी क्यूंकि मंदाकिनी स्नान के वक्त नदी के संग जो भाव पनपा वह अवर्णनीय है। साथ ही प्रकृति का जो सौंदर्य वहां देखने को मिला वह बहुत ही सुखद है। तो रामचरित मानस के इस दोहे ’चित्रकूट की बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति, पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन रात...’ (चित्रकूट के पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादि की सभी जांितयां पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं देवता दिन-रात ऐसा कहते हैं। ) के साथ मैं चित्रकूट की पावन धरती को प्रणाम करती हूं और अपनी लेखनीं को विराम देती हूं।

Monday, September 3, 2018

ये बनारस है साहब....💐

तकरीबन एक साल सात महीने पहले ही ये अंश 
लिखा जा चुका था। लेकिन अधूरे सफर के चलते इसे ब्लॉग पर साझा नहीं किया। फिर लंबे अंतराल के बाद दोस्त के साथ सफर पूरा हुआ तो सोचा कि इस अंश को भी मुकम्मल कर देना चाहिए। शुक्रिया दोस्त🙇। हालांकि बनारस का सफर अभी भी अधूरा है। लेकिन बाबा विश्वनाथ और महाकाल के दर्शन और घाट के चंद घंटों के सफर से इसे पूरा मान लिया जाए।
तंग गलियों में आस्था का ऐसा सैलाब, जो एक दूसरे से लड़ने भिड़ने का भी अहसास नहीं कराता और अगर आप किसी से लड़ भी गए तो तो बदले में आपको एक मुस्कराहट मिलेगी। यहाँ कोई किसी पर नहीं चिल्लाता। सब बस प्यार बांटते रहते हैं। ......जी ये बनारस है साहब। 
.......कुछ घण्टो की बनारस नगरी की सैर ने किसी राजकुमारी से कम अहसास नही कराया। पहुचते ही रुकने का इंतज़ाम हो चुका था, यानि कि हम कहाँ और कैसे रुकेंगे , ऐसी कोई परेशानी न थी। तो भई हो गया यहाँ तक का किस्सा।
.....फिर निकल पड़े  भोलेनाथ के दर्शन को। सुना था और देखा भी वहां जबरदस्त भीड़ , लेकिन बाबा की ऐसी कृपा कि वहां भी कुछ स्पेशल सी फीलिंग। और बस देखते ही देखते हो गए दर्शन। इसके बाद उस पवित्र जल का पान जिसके लिए मान्यता है कि पंडित जी आक्रमण के समय शिवलिंग को लेकर उसी कुंड में कूद गए थे। कहा यह भी जाता है कि कुंड के जल का पान करने से आस्था, ज्ञान और सौभाग्य में वृद्धि होती है। खैर हमारी आस्था तो पहले से ही बहुत थी और विश्व्नाथ के दर्शन के बाद और भी प्रबल हो गयी। 
इसके बाद माँ अन्नपूर्णा के दर्शन। वहां भी विशेष व्यवस्था के तहत हमारे आँचल में माँ का आशीर्वाद। सबकुछ बहुत कम समय में और बहुत आसानी से हुआ।
 महज दो घंटे में बाबा के दर्शन फिर वापसी का सफर। ये काफी रोमांचकारी रहा। तमाम सारी चीजें होने के बाद जैसे ही स्टेशन पहुँचे, ट्रेन हमारा साथ छोड़ चुकी थी। फिर क्या था पूरे दिन के सफर की थकान हँसी में गुम गई। कहानी अभी खत्म नही हुई अगली ट्रेन आ गई और हमारा सफर शुरू। जीवन में बहुत सारी यात्राएं की लेकिन ये यादगार लम्हों में से एक बन गयी। इन सबके लिए और एक राजकुमारी वाली फीलिंग के लिए दोस्त आपका शुक्रिया। क्यूंकि अपार सहयोग और स्नेह से ये यात्रा बहुत अच्छी रही।
ये सफर का पहला हिस्सा है। 
....थोड़े अंतराल के बाद किसी ज़रूरी काम से बनारस फिर जाना हुआ। जिस दिन पहुंचे उसके अगले ही दिन घाट पर जाने का मौका मिला। सोमवार का दिन था, शाम पूरी तरह ढल चुकी थी और रात की आमद थी। हम पतित पावनी गंगा के समक्ष थे और मन में उलझनों की हज़ार तरंगें थीं। जो माँ गंगा के स्पर्श मात्र से धीरे-धीरे शांत होती प्रतीत हो रही थी। मन को शांत पाकर कुछ पलों के लिए गंगा की लहरों पर एकाग्र होकर खुद को पूरी तरह पतित पावनी को समर्पित कर दिया। ताकि विचारों का आवागमन थमें और खुद के साथ कुछ वक्त बिता सकूं। 
....यकीन जानिये ऐसा ही हुआ। मन पूरी तरह से आज़ाद था, किसी परेशानी या उलझन की कोई जद्दोजहद भी नहीं थी। चेहरे पर मुस्कुराहट थी और आँखों मे चमक। तमाम सवालों के जवाब मिल चुके थे। खुद के ही विरोध में खड़ी मैं अब मुस्कुरा रही थी और शायद बनारस जाना सार्थक हो चुका था कि तभी फ़ोन की घंटी ने मेरी तंद्रा तोड़ी। घड़ी में 11 बज रहे थे। रूम पर जल्दी पहुँचने का नियम टूट चुका था। लेकिन बनारस में खुद से मुलाकात भी हो चुकी थी...... इस बार के बनारस के सफर में काल भैरव के दर्शनों का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। तो इस तरह बतौर राजकुमारी शुरू हुआ बनारस का सफर अब मुकम्मल कब होगा या नहीं होगा? पता नहीं लेकिन अब तक के सफर की कहानी यहीं मुकम्मल होती है। 😊

Saturday, August 25, 2018

कोलकाता के सफर में स्वाद-ए-बनारस बाटी-चोखा

....कौन कहता है कि जगह बदले तो खानपान बदलता है। स्वाद बदलता है या फिर खाने का अंदाज बदलता है। बनारस से 680 किलोमीटर दूर कोलकाता में बनारस का स्वाद लोगों की जुबान पर चढ़कर बोलता है।
वेजेटेरियन ही नहीं नॉन वेजेटेरियन भी बनारसी बाटी चोखा को ढूढते हुए वहां पहुंचते
हैं और फिर वीक ऑफ पर खाने को लेकर वही उनकी फेवरेट जगह होती है। यकीन जानिए जब मैं वेज खाने की तलाश में गूगल कर रही थी और बाटी चोखा रेस्टोरेंट का नाम देखा तो मन किया जाकर देखते हैं। और फिर सवाल प्योर वेज खाने का भी था। लेकिन खाने का वही टेस्ट होगा लखनऊ या फिर वाराणसी वाला सोचा नहीं था। जैसे ही हमारी नजर बाटी चोखा रेस्टोरेंट पर पड़ी, चेहरे पर मुस्कान अपने आप तैर गई। हो भी क्यूं न वही लुक वहीं अंदाज। फिर भी खाने के उसी टेस्ट को लेकर जरा सोच में थी। तभी दरबान ने दरवाजा खोला और बड़ी तहजीब के साथ अंदर तक ले गया। कोलकाता में भी लखनवी अंदाज दिल को छू गया। इसके बाद इंटीरियर पर नजर गई। हूबहू राजधानी और वाराणसी की शक्ल का था। फिर तो तसल्ली हो गई कि स्वाद भी वही होगा। कुछ ही देर में हमारे जाने-पहचाने अंदाज में परोसी गई बाटी और चोखा। साथ में टमाटर-मिर्च और लहसुन वाली चटनी घी के साथ। स्वाद जैसे ही जुबान तक पहुंचा, मंुह से अपने आप निकल गया अरे वाह..... लजीज बिल्कुल वहीं स्वाद। फिर तो यही अपना अड्डा बन गया। हां बस एक दिक्कत थी कि चाय यहां शाम के 7 बजने के बाद नहीं मिलती।
.......वाराणसी से शुरू हुआ कोलकाता तक पहुंचा और जल्दी ही नोएडा में भी होगी दस्तक.......कोलकाता में बनारस के स्वाद को पाकर बहुत खुशी हुई तो बस फिर क्या था हमने मैनेजर से और वहां आए लोगों से बात की। मैनेजर एसके मिश्रा जी ने बताया कि कोलकाता में बाटी-चोखा की शुरूआत वर्ष 2015 में सॉल्ट लेक फाइव-डी में हुई। पहले साल से ही लोगों का बहुत अच्छा रिस्पांस मिला है। खासतौर पर यूपी से आने वाले लोग स्पेशली बाटी चोखा ढूढ़कर वहां पहुंचते हैं। उन्होंने बताया कि स्वाद से कोई समझौता न हो, इसके लिए बाटी-चोखा के शेफ रोटेट होते रहते हैं। कभी बनारस वाले लखनऊ तो कभी कोलकाता। कुछ इस तरह से होता है स्वाद का मैनजमेंट। उन्होंने बताया कि वाराणसी, लखनऊ और कोलकाता के बाद जल्दी ही नोएडा में भी स्वाद-ए- बनारस की दस्तक होगी।  वहीं रेस्टोरेंट आए लोगों से जब बात की तो वह भी बनारस के स्वाद की तारीफ करते नहीं थके। टीसीएस में बतौर सॉफ्टवेयर काम करने वाले अयान और राजीव ने बताया कि यूं तो वे नॉन वेजेटेरियन हैं लेकिन वीकेंएड्स पर वे बाटी-चोखा ही आते हैं। अयान ने कहा कि गजब का स्वाद है इसमें। यहां का खाना खाकर सोचता हूं कि एक बार तो यूपी जरूर जाना चाहिए। बेहतरीन स्वाद है वहां के खाने में फिर चाहे यूपी का पुचका हो या फिर बाटी-चोखा। 

Thursday, August 9, 2018

.....दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात


देखों बरसात आई तो तुम भी करीब आ गए। यूं लगता है कि अब हमारा मिलन होकर ही रहेगा। जानते हो तुम्हें देखकर मन करता है गुनगुनाने का कि 'दो सितारों का जमीन पर है मिलन आज की रात, मुस्कुराता है उम्मीदों का चमन आज की रात।' झील मुस्कुरा रही थी और बादल को देखकर अपने मन ही मन में बातें किए जा रही थी। अभी उसके चेहरे पर लहरों की मुस्कुराहट तैरी ही थी कि अचानक से चली बोट ने उसे अंदर तक झकझोर दिया। और उसे याद आई बीतीं बातें । झील फिर से खुद से बातें करने लगी तुमसे बिछड़े हुए कई महीनें हो गए। इस दौरान तुम्हें भूलने की लाख कोशिशें की। कभी तमाम रातें जाग कर मैंनें लहरों की अठखेलियों पर मुस्कुरा कर जीने की कोशिश की तो कभी शांत होकर मैंने खुद के खालीपन को भरने के लिए अपनी गहराई को मांपना चाहा। हालांकि उस दौरान भी आसमान पर तुम मुझे नजर आते थे। कभी बारिशों को खुद में समेटे हुए तो कभी गरजकर यूं जताते कि जैसे अभी ही मुझसे लिपट जाओगे और बरस जाएगीं बूंदें तुम्हारी मोहब्बत की। 
........लेकिन तुम्हारी तमाम कोशिशों के बावजूद मैंने तुम्हारी राह तकनी छोड़नी दी थी। मैंने तुमसे हर रिश्ता खत्म कर लिया था और मौसम भी मेरे साथ था। तभी तो तुम दूर मुझे आसमान पर टके नजर आते थे। जिसके होने न होने का अर्थ मेरे लिए बेमानी था। इस तरह कई महीने बीत गए। अब तो लहरों और नावों के साथ मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी। और तो और मेरा सफर करने आने वाले सैलानी जब मुझे छूकर अपनी तस्वीरें खिंचवातें तो मुझे खुद पर बड़ा गुमां होता था। मैं इतराती थी, इठलाती थी और उनके सफर को और भी रोमांचक और खूबसूरत बनाने के लिए अक्सर मचल सी जाती थी। तब नाविक कहता था कि धारा तो बिल्कुल हमारे ही संग हो ली है जैसे। फिर एक दिन प्रेमी जोड़ा मेरी सैर करने आया और अपने प्रेम का साक्षी मुझे बनाने लगा। मैं मन ही मन सोच रही थी कि जिसके भीतर प्रेम ही न हो आखिर वह कैसे प्रेम का साक्षी बन सकता है। मैंने खुद को टटोला। मेरे मन के किसी कोने में दफन तुम्हारी बातें, जो अब यादें बन चुकी थीं। वो फिर से मुझपर हावी सी होने लगीं। मौसम तेजी से बदलने लगा।
............. आसमान पर फिर तुम्हारी आमद हुई अचानक से तुम्हारे गरजने की आवाज हुई फिर बारिश की हल्की-हल्की फुहारें पड़ने लगीं। आज फिर तुमने कोशिश की मेरे करीब आने की और फिर से तुमसे तारूफ हो, ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं थी। तभी प्रेमी जोड़े आपस में गले लगकर बातें कर रहे थे कि उनकी मोहब्बत को कुदरत भी बारिश की बूंदों से आर्शीवाद दे रही है। उनपर अपना प्यार लुटा रही है। मुझे रश्क हुआ उनसे तभी लहरों ने मुझसे कहा कि झील ये बूंदें तो जानें कब से तेरी हैं सिर्फ तेरी और अब और इनसे जुदा मत रहो। उसने कहा समेट लो इसे अपने आगोश में क्योंकि यह बादल तुम्हारा है और जानती हो... कि जिनसे मिलने की तमन्ना हो वही आते हैं, चांद-तारे तेरी राहों में बिछे जाते हैं, चूमता है तेरे कदमों को गगन आज की रात...... लहरों का ये कहना था और तुम मेरे करीब आकर झूमकर बरसे तो यूं लगा जैसे दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात......

Sunday, August 5, 2018

महलों के शहर सिटी ऑफ जॉय में पहला दिन.... बेहद खास रहा यूपी के गोलगप्पा और कोलकाता का पुचका के नाम

                                                                                                                           









देर रात पहुंची हमारी ट्रेन और फिर काली-पीली टैक्सी (जी हां यहां टैक्सी को इसी नाम से बुलाते हैं,) से सॉल्ट लेक का सफर आधे घंटे में ही तय हो गया। अगली सुबह बेहद खूबसूरत थी। बादलों के बीच से धूप जैसे झांक रही हो। तो इस तरह से दिन की शुरूआत हुई और दिन ढलते-ढलते बरखा रानी जमकर बरसीं। हमनें भी खूब मजे किये क्योंकि अभी तक तो सुना था कि बादल कहीं बरसे न बरसे लेकिन कोलकाता में अगस्त के महीने में जमकर बारिश होती है। तो हम इस खूबसूरत मौसम से क्यूं बचते? तो हो लिए बारिश के संग और पहुंच गए कॉफी पीने। शानदार कैपेचीनों का लुत्फ उठाने के बाद जैसे ही बारिश हल्की हुई, पहुंच गए पुचका खाने। जानते हैं पुचका क्या है? अरे भाई हमारे यूपी का हर दिल अजीज और लखनऊ में तो अलग-अलग पानियों यानि कि खट्टा-मीठा, हींग वाला, नींबू वाला, दही वाला और न जाने क्या-क्या। सही समझे आप गोलगप्पे। यकीन मानिए यहां के पानी पूरी का नाम ही नहीं बदला बल्कि टेस्ट में भी लाजवाब हैं। हालांकि ये अलग बात है कि पुचका खिलाने वाले भइया जी यूपी के ही इलाहाबाद शहर से रोजी-रोटी की तलाश में कोलकाता पहुंच गए। बातों ही बातों में उन्होंने यह भी साझा किया कि पुचका का अलग अंदाज उन्होंने कोलकाता में सीखा लेकिन उसमें यूपी का तीखा वाला तड़का वो जरूर लगाते हैं और फिर जब आखिरी पुचका खिलाते हैं तो उसमें ढेर सारी मटर के साथ पुदीने और कच्चे आम की चटनी का स्वाद डाल देते हैं, जिससे पुचका और भी लजीज हो जाता है। आपको बता दें कि यहां यूपी वाले पुचका की फें्रचाइजी भी है। हालांकि अभी छोटे स्तर पर ही है, लेकिन डिमांड को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि जल्दी ही यूपी वाले पुचका की बड़ी-बड़ी दुकानें होंगी। ऐसे में जब हमनें उन्हें खुद के यूपी से होने का बताया और उनके पुचका की तस्वीर लेनी चाही तो वे खुद भी तस्वीर के खांके में शामिल होने लगे। फिर हमनें भी पुचका के साथ यूपी वाले भइया की तस्वीर ले डाली। तो ये तो था पुचका के साथ पहला दिन। आगे बहुत सारी प्लॉनिंग है, देखते हैं क्या-क्या मिलता है सिटी ऑफ जॉय के सफर में......

Wednesday, June 20, 2018

तिलाजंलि तुम्हारे प्रेम की....


तुमसे ही ख्वाब थे मेरे, तुमसे ही रातें थी, तुमसे ही सुबहें थीं और तुमसे ही तमाम बातें थीं।
फिजा में तुम थे, खिजा में तुम थे, सांसों में तुम थे, मेरी रूह तक भी तुम थे।
तुमको रूखसत खुद मैंने किया लेकिन कहां मालूम था कि जानें से पहले तुम मुझसे मुझको ही छीन जाओगे।
सोचा था ये नाराजगी भरा अलविदा मुझे सुकून देगा आखिर मैंने ही तुमसे आजादी चाही थी।
लेकिन पता नहीं था कि अब खुशी है कोई रूलाने वाला हमनें अपना लिया है हर रंग जमाने वाला....
तुम्हें तल्खी भरे अलविदा के साथ ही मेरे भीतर पलने वाली प्रेम की हर पंखुड़ी अब सूखने लगी है।
अब थोड़े ही वक्त में यह खत्म हो जाएगी और फिर प्रेम का कोई भी बीज मेरे अंदर पल्लवित और पुष्पित नहीं होगा।
क्यूंकि तुम्हें रूखसत करने के साथ ही अब मैं इस प्रेम की भी तिलाजंलि चाहती हूं।
जीऊगीं जरूर लेकिन तुम्हारी यादों के घुटन के साथ नहीं, तुम गए हो तो इसे भी ले जाओ
ताकि गाहे &&गाहे तुम्हारी बातें यादों में भी मेरा सुकून छिने....
और तुमसे जुड़ी कोई बात, अहसास मुझे याद रहे और प्रेम के लिए बस इतना कहूंगी कि ईश्वर ये भाव मुझमें फिर जागृत करें.....
अब केवल तिलाजंलि है.....तुम्हारी, तुम्हारी बातों की...
तुम्हारी यादों की और तुम्हारे प्रेम की......

Friday, May 25, 2018

ये सच्चा वाला इश्क है!

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया ,जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया । इसका रोना नहीं क्यूं तूने किया दिल बर्बाद , इसका गम है कि बहुत देर बर्बाद किया.....

........गोया वो भी क्या दिन था जब हमारी जिंदगी में शामिल हुए कहते हुए मुस्कुरा रही थी नूरन। यही कोई जनवरी में 28 तारीख के आस-पास। हमारी पहली मुलाकात। कौन जानता था कि हर दम यूं झगड़ने वाले एक-दूसरे से इश्क फरमाएंगे। दूसरों की छोड़ों श्वेताब तुम्हें या हमें भी कहां पता था। फिर लड़ते-झगड़ते कुछ ही महीनों में हमनें खुद को तुम्हारे करीब पाया। लेकिन दिल को यह अहसास कराना जरूरी नहीं समझा। जानते हो क्यूं? क्योंकि हमारा दिमाग कह रहा था ये अहसास एक तरफा हैं। कुछ और वक्त बीता हम धीरे-धीरे करीब आने लगे। लंबा अरसा बीता इस तरह। तुम मुझे मैं तुम्हें जानने लगी, समझना इसलिए नहीं कहूंगी क्यूंकि तुम्हें लगता है कि मैं किसी को समझ ही नहीं सकती। तो फिर तुम माशाअल्लाह हर बात में माहिर ऐसा इसलिए कह रही हूं कि दिखने में तो मस्तमौला अपनी ही रौ में रहने वाले लगते हो, जिसे कभी किसी भी बात की तकलीफ नहीं होती। लेकिन असल में तुम इससे अलहदा हो। आखिरकार तुम भी तो खुदा के ही बनाए हुए बंदे हो। फर्क इतना है कि तुम्हारे दुःख और तकलीफ किसी पर शायद तुम्हारे अपनों पर भी जाहिर नहीं होते। फिर तुमसे कोई दिल दुखाने की उम्मीद भी कैसे कर सकता है। जो हर बात पर मजाक के मूड में रहता हो, कभी किसी बात को सीरियसली लेता ही न हो। यहां तक कि अपनी जिंदगी को भी। जानते हो श्वेताब तुम्हारी यही अदा दिल को भाती थी। पर हमारे लिए जो तुमने किया उससे तो यह अहसास हुआ कि तुम्हें कभी दुःख या तकलीफ नहीं होती। हालांकि यह अच्छा भी है क्यूंकि हम नहीं चाहते कि कभी तुम्हारी आंखें नम हो। तुम्हें तो अंदाजा भी नहीं कि दिल टूटता है तो कितना चुभता है, हंसने-बोलने के लाख जतन करने पर खुद को धोखा देने जैसे लगता है। 
 श्वेताब कब तुमसे प्यार हो गया पता ही नहीं चला। फिर एक दिन तुमने भी इजहार-ए-मोहब्बत कर दी। फिर तो हम तुम्हें अपना खुदा ही मान बैठे थे, लेकिन इसकी खबर तुमको नहीं दी थी। क्यूंकि जानती थी कि तुम सातवें आसमान पर बैठ जाओगे.....जानते हो तुम्हें चाहना मेरी ख्वाहिश है, तुम्हारी इबादत भी चाहत है, लेकिन ये कब कहा मैंने कि खुदा हो मेरे तुम और मैं तुम्हारे ही सजदे में दिन-रात रहती हूं। न जाने कब कैसे तुमको इस बात की खबर हो गई फिर तुम बन गए मेरे खुदा। समझ गए कि मैं तो तुम्हारे ही सजदे में हूं। महसूसने लगे तुम कि इन निगाहों में तो तुम्हारा ही ख्वाब पलता है। तो अचानक से मुझसे मेरे प्रेमिका होने का अधिकार क्यूं छीनने चले आए... जबकि हमनें तो यहां तक कहा कि  
     "जाने वाले मेरी महफिल से बहार लेता जा, हम खिजा से निबाह कर लेंगे। "तब क्या जरूरत थी मुझे ये जताने की कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है। इस तरह मुझे इजहार करके छोड़कर जाने की।
 .........काश! हमनें तब यह कहा होता कि "हमसे ये सोचकर कोई वादा करो ,एक वादे पे उम्रें गुजर जाएंगी। ये है दुनिया यहां कितने अहले वफा बेवफा हो गए देखते-देखते...."
     तुमने तो हमें पूरी तरह से खत्म कर दिया श्वेताब। लेकिन उस दिन मुझे अहसास हुआ कि 
    "मैंने पत्थर से जिनको बनाया सनम,वो खुदा हो गए देखते-देखते। जिन पत्थरों को हमनें अता की थी धड़कनें ,वो बोलने लगे तो बरसने लगे हम पर........."
तुम न सिर्फ हमसे जुदा होने की चाहत जता रहे थे बल्कि बता रहे थे कि किसी और से तुम्हें बेइंतहा मोहब्बत है और उससे निकाह करने जा रहे हो। इसलिए अब हमें ये हक नहीं कि हम तुम्हें पाने की चाहत करें। जानते तो तुम्हारे जाने के बाद हम घंटों खामोश रहे और जेहन में चलता रहा कि "गैर की बात तस्लीम क्या कीजिए अब तो खुद पर हमको भरोसा नहीं ,अपना साया समझते थे जिनको कभी वो जुदा हो गए देखते-देखते।" हम खुद से सवाल करते रहे लोग क्यूं कहते हैं कि इश्क बस एक बार होता है। लेकिन फिर ये भी याद आया कि जो रूह तक रचा बसा हो उसे ही सच्चा इश्क या बेहद शदीद प्रेम कहते हैं। तुम जाओ तुम्हें जाने से किसने रोका लेकिन मेरे जज्बातों पर तुम कैसे अधिकार जमाना चाहते हो। श्वेताब ये सच्चा वाला इश्क है, जो एक बार रूह में बस जाए तो फिर कजा ही दूर कर पाती है इसे वरना तो सही-गलत का पैमाना इसके लिए बना ही नहीं। ये तो बस इश्क इश्क और इश्क है....तो इस तरह मैं तुम्हें इस अधिकार से बर्खाश्त करती हूं कि तुम मुझसे मेरा तुम्हारी प्रेमिका होने का हक ले लो और इस जन्म में तो  हरगिज नहीं क्योंकि मैं रूह समेत तेरे सजदें में हूं मेरे खुदा। 
नगमे दिल से में इस बार शनिवार सुबह दो जून को सुनिए इस कहानी को एफएम रेनबो 102.8आपकी रॉकिंग हार्ट प्रियंका के साथ।। 


Saturday, May 19, 2018

‘मैं जा रहा हूं, मेरा इंतजार मत करना, मेरे लिए कभी भी दिल सोगवार मत करना‘



नहीं कोई उलझन नहीं है,
लेकिन पहले सा मेरा मन नहीं है।।
वही है रूह की गहराइयों में ,
फकत इक फिक्र का बंधन नहीं है।।
उसे तुम राहबर समझो न समझो,
मगर ये सच है वो रहजन नहीं है।।
भले मुंह फेर ले वो इख्तिलाफन,
वो मेरा दोस्त है दुश्मन नहीं है।।

और अंतिम पंक्तियां अनवर जलालपुरी की हैं....‘मैं जा रहा हूं, मेरा इंतजार मत करना, मेरे लिए कभी भी दिल सोगवार मत करना।।‘

Thursday, May 10, 2018

न भाषा भाव शैली है, न कविता सारगर्भित है ह्नदय का प्यार है जितना वह सादर समर्पित है------

आज न ही कोई विशेष दिन है और न ही कोई खास बात, हुआ कुछ यूं कि हमारी कबर्ड से आज स्लैम बुक मिली वही पुरानी, 12वर्ष पुरानी और उसके पन्नें पलटे तो कुछ यादों ने एक पल में पूरा फ्लैश बैक दिखा दिया। तकरीबन मेरे हर सीनियर के कमेंट बॉक्स में एक बेहद कॉमन कॉम्पलीमेंट था.........पापा की लाडली  
जानतें हैं ये बात सबको कैसे पता थी क्यूंकि अगर हम अपना लंचबॉक्स भूल जाते थे तो कभी पापा का ऑफिस ब्यॉय तो अमूमन पापा जी खुद लेकर पहुंच जाते थे और हम पापा से मुखातिब होते थे 
प्रिंसीपल के रूम में तो हमारे प्रिंसीपल सर जो अब इंजीनियरिंग कॉलेज के डॉयरेक्टर हैं -----शर्मा सर कहते थे क्या हुआ प्रियंका ?
              तुम रोज-रोज पापा को जानबूझकर परेशान करती हो और पापा कहते कोई बात नहीं अगली बार अगर बड़के भूल गए तो लंच नहीं भेजा जाएगा। जबकि ऐसा पापा कभी कर नहीं पाए। खास बात यह है कि ऑफिस ब्यॉय को भी पापा खुद मना करते थे और खुद ही चले आते थे। मुस्कुराते हुए हमें लंचबॉक्स थमाकर चले जाते थे। ऑफ्टरऑल वो भी अपना लंचटाइम से टाइम निकालकर आते थे और समय की पाबंदी तो पापा को आज भी इतनी है कि हम ब्रेकफास्ट के टाइम पर टेबल पर नहीं पहुंचे तो हमारा ब्रेकफास्ट फास्ट में तब्दील हो जाता है।
खैर हम बात कर रहे थे स्लैम बुक के कुछ बेहद कॉमन कॉम्पलीमेंट की। तो हमारी स्लैम बुक में पापा का बुना वो ख्वाब जो उनकी लाडली के लिए पहले पन्नों में दर्ज था वह भी मिल गया। दरअसल पापा ने उसे अपनी डायरी में लिखकर संजो लिया हमारे लिए और हमने उस पन्नें को सहेज लिया जानें क्या सोचकर। फिर क्या था मन जाने क्यूं मचल उठा उसे ब्लॉग पर हमेशा के लिए सहेजने का। आंखें पढ़ते-पढ़ते ही नम हो आई लेकिन यकीन जानिए हमारे होठों पर पापा जी का स्नेह मुस्कुराहट बनकर तैर रहा था। 
यह वो ख्वाब है जो देखा गया दशक पहले....फिर पापा जी ने उसपे अपने बड़के यानि कि हमारा नाम (बचपन से ही पापा हमें इसी नाम से बुलाते हैं कभी बेटी या फिर मेरा नाम नहीं सुना हमनें )वो गीत जो उनकी शादी में शिष्टाचार में गाया गया। उन्होंने उसे हमारी शादी के लिए सहेज लिया। अजीब बात है ना इस रिश्ते की बिना कुछ कहे बहुत कुछ कहता है.... मुझे लगता है कि मैं उस गीत से जुड़ी मेरे पापा जी की भावनाओं को शायद उतने बेहतर तरीके से पेश नहीं कर पाऊंगी जितना वह बड़के के लिए महसूसते हैं..... 
इसलिए पंक्तियां समर्पित करती हूं......

----------न भाषा भाव शैली है, न कविता सारगर्भित है
ह्नदय का प्यार है जितना वह सादर समर्पित है।।
यह कन्यारूपी रत्न तुम्हें मैं आज समर्पित करता हूं।
निज ह्नदय का प्रेम प्यारा टुकड़ा लो मैं तुमको अर्पिण करता हूं।।
मां की ममता का सागर है, यह मेरी आंखों का तारा है।
कैसे बतलाऊं मैं तुमको किस लाड़-प्यार से पाला है।
यह बात समझकर मैं अपने मन ही मन रोया करता हूं।। 
मेरे ह्नदय का नील गगन का यह चंदा तारा था।
अब तक न जाने पाए मैं कि इसपर अधिकार तुम्हारा था।।
लो आज अमानत लो अपनी करबद्ध निवेदन करता हूं।।
यह कन्यारूपी रत्नी तुम्हें मैं आज समर्पित करता हूं।।
इससे तो भूल बहुत होगी, यह मेरी राजकुमारी है।
इसके अपराध क्षमा करना यह मां की दुनिया की सुकुमारी है।।
जिस घर में पलकर बड़ी हुई, सूना कल वह आंगन होगा।
यह बात समझकर मैं अपने मन ही मन रोया करता हूं।।
यह जाएगी सब रोएंगे, छलकेगी नयनों की गागर।
माता-बहनें-भैया रोए और होगा करूणा का सागर।।
लो आज तुम्हें इन नयनों की प्रिय सीता अर्पण करता हूं.......
संग इसके तुमको लो आज पिता कहलाने का अधिकार समर्पित करता हूं।।
यह कन्यारूपी रत्न तुम्हें मैं आज समर्पित करता हूं......................

(सॉरी पापा आपकी इजाजत के बिना ही बड़के ने इसे ब्लॉग पर पोस्ट किया। लेकिन आज जब 12बरस बाद हमनें यह कविता पढ़ी तो इसके मायने और आपके अरमान हमें समझ आए और हम खुद को रोक नहीं पाए--- )


Wednesday, May 2, 2018

पर रुक्मणी -कृष्ण कहै नहीं कोई......

मेरे प्रेम की अविचल धार तुम
तुम ही तो हो मेरी धारा।।
सोचो जरा गर तुम ही न होते
तो होती कैसी ये धारा
ठहरो जरा तो मैं ही बता दूं अपनी बीती तुमको सुना दू
जब तुम नहीं थे
तो ये दुनियां नहीं थी
ना ही था ये नदियों का कलकल बहता हुआ संगीत कहीं
पक्षी भी चुप थे
भंवरे भी गाते नहीं थे संगीत
पायल की रुनझुन भी जाने क्यूं गुम थी
और गुम थी चूड़ियों की खनखनाहट।।
फिर एक दिन कोई दस्तक हुई
पक्षी लगे फिर से चहचाहने,
भंवरे भी थे लगे गुनगुनाने।।
पायल भी मेरी हुई बावरी सी, जो बजती ही जाने लगी।।
हाथों की चूड़ी खनकने लगी फिर
सखियाँ मेरी फिर लगी थी चिढ़ाने
तेरा नाम लेकर लगी गुनगुनाने
फिर एक बैरन ने मुझसे पूछा
पिया तेरे कबसे न आये बावरी
बता दे हमसे भी है क्या छिपा री
नज़रे झुकाएं, अज़ी पलकें बिछाएं तुम्हारी ही जुस्तजू में खड़े हम सोच रहे थे क्या कुछ कहे हम कि
बैरी ज़माना तुम्हे कुछ कह न पाए,
तभी एक छंद मुझे याद आया वही मैने सबको कह सुनाया
जो हरि मथुरा जाय बसे
हमरे जिय प्रीत बनी रही सोई।।
उध्दव बड़ो सुख यही हमें कि निकी रहे वई मूरत दोई।।
हमरे ही नाम की छाप परी
अन्तरबीच अहै नहीं कोई।।
राधा-कृष्ण सभी तो कहै
पर रुक्मणी -कृष्ण कहै नहीं कोई।

Monday, April 23, 2018

तुम्हारी पसंद और नापसंदगी से मेरा वर्णन नहीं किया जाएगा.......

तुम्हारी पसंद और नापसंदगी से मेरा वर्णन नहीं किया जाएगा।
जानते हो या तुम्हें मैं खुद समझा दूं कि क्यूं?
क्यूंकि मैं ही आदि शक्ति हूं, स्वयं शंकर मेरे बिना अधूरे हैं।
ये सृष्टि मेरे द्वारा ही सृजित की जाती है।
लेकिन बदलती सदी में जब मैंने कुछ अधिकार पाने चाहे तो तुमने उसे चरित्रहीनता का नाम देकर अपनी पसंद बना लिया।
और जिन बातों को मैंने अपना गहना समझा उसे तुमने पिंजरे में कैद पंक्षी की संज्ञा दे दी। आखिर कैसे और क्यूं? दिया किसने तुम्हें यह अधिकार?
तुम कहते हो चरित्र गुलामी है एक बंधन है, शर्तों से तय होता है और तो और तुम्हारी नजर में चरित्र गैर कुदरती है, प्रकृति विरोधी है फिर तुम कैसे आए उसी चरित्र के ही तो चलते। जब दो देह मिलीं तो प्राकृतिक तौर पर तुम्हारा सृजन होना शुरू हुआ। इसके बाद जब तुम्हें जन्मनें की बात आई तो दर्द को चुप्पी में तब्दील करने की जो सलाहियत थी वो बंदिश नहीं थी। वो थी प्रकृति की सबसे अदभुत घटना को महसूसने की। दर्द में होने वाली आवाज में कहीं तुम्हारा अहसास न गुम हो जाए, इसलिए थी वो चुप रहने की हिदायत। तो जिया तुम्हें मैंने और तुम्हें मेरी चुप्पी ने यह अहसास दिलाना चाहा कि मैं कितनी मजबूत हूं और दर्द में तुम्हें मैंने किस तरह जिया है।
और परमानंद में मेरी खामोशी मेरा चरित्र को बचाने के लिए नहीं होती बल्कि उस वक्त मैं और तुम दो जिस्म और एक रूह होते हैं और जब रूह का मिलन हो तो आवाज से खलल पड़ता है। इसका मतलब ये हरगिज नहीं कि मुझे चरित्रहीनता का डर है तो खामोशी होती है। क्यूंकि यह वही तो समाज है जिसने मुझे तुम्हारे साथ एक अंजाने व्यक्ति के साथ शादी के बंधन में बांध कर सुहागरात मनाने के लिए कमरे में बंद किया था। फिर इनके सामने अगर मैं तुम्हें प्रेम करूं तो वो मेरी उन्मुक्तता होगी चरित्रहीनता नहीं।
और तुम कहते हो कि तुम्हें चरित्रहीन औरतें पसंद हैं फिर तो जग की हर नारी तुम्हें नापसंद होनी चाहिए। क्यूंकि जिसे तुम चरित्रहीनता की संज्ञा देकर पसंदगी बता रहे हो, वह हमारी स्वाधीनता है जो सदी के बदलने पर हमनें बदली है। कि जब हमारा जिसभी काम के लिए जैसा भी मन हो हम उसे बेबाकी से कर सकें, किसी को प्रेम करना हो, सेक्स करना हो या फिर बच्चे को जन्म देते वक्त चिल्लाने की बात हो। हम अपने फैसले स्वयं लें किसी की मर्जी से नहीं। लेकिन इसे तुमनें चरित्रहीनता की संज्ञा देने की हिमाकत भी कैसे की। यह महज स्त्री जाति के लिए उसकी स्वाधीनता है।
और क्या कहा था तुमने अपनी कविता में कि तुम्हें कुदरत पसंद है क्यूंकि उससे चरित्रहीन कुछ भी नहीं। तो बरखुरदार अगली बार ऐसा कहने और लिखने से पहले सौ दफा सोचिएगा प्रकृति का अपना चरित्र है, हवा का अपना चरित्र है जिसमें आप मदमस्त हो जाते हैं। पानी का अपना चरित्र है जिसके कलकल में आपको जीवन का संगीत सुनाई देता है। अग्नि का भी चरित्र ही है कि उसके समक्ष ही हर शुभ और अशुभ यानि कि जीवन मरण के कार्य संपन्न कराए जाते हैं।
तो अगली बार स्त्री को अपनी पसंद बताते समय चरित्रहीनता वाला टैग किनारे रख दीजिएगा।

Monday, April 16, 2018

डायरी के पन्नों से:


बड़ी हसीन थी वो शाम कि जब आप मिले,
बड़ी हसीन थी वो मुलाकात कि जब आप मिले।।
मैं खुद को रोज आइने में देखती हूं,
कि खुद में आपका मुझे अक्स मिले।।
वो नजर आज भी मुझे याद है कि जब आप मिले,
बड़े हसीन थे वो लम्हात कि जब आप मिले।।
तेरे दीदार का है शुक्र खुदा का मुझे,
जो हर दुआ का असर हुआ और मुझे आप मिले।।

Friday, April 13, 2018

डायरी के पन्नों से: एक बार फिर 'तुम' हो


मेरी आज की कविता एक बार फिर तुम हो,
हर शब्द का आगाज और अंजाम तुम हो।।
तुम हो न हो एहसास रहता है,
कि मेरे दिल की धड़कनों में तुम्हारा साज बजता है।।

बस एक बार ये बात तुम भी कह दो,
मेरे दिल की इस बात को अंजाम तुम दे दो।।
फिर तुम चले भी जाओगे तो इल्जाम न दूंगीं,
बस एक बार तुम मेरे हो, इसका एहसास तुम दे दो।।
कि मेरी आज की कविता एक बार फिर तुम हो....................
एक बार फिर तुम हो........................

Wednesday, April 11, 2018

डायरी के पन्नों से ------------


आज जानें क्या बात हुई

फिर से आज मेरी आंखें नम सी हुई।।

एक और बार मुझे बीता लम्हा याद आया। 

काश ! के वक्त कुछ और देर रूक जाता।।

तो बदल देती अतीत के सारे हिस्से।

फिर न होती ये रात और ये आंखें नम।।

फिर न होती मेरे दिल में कोई कसक।

फिर न होती ये बीती कहानी।

आज जानें क्या बात हुई................

वो लम्हा आया और बीत गया

वो शख्स अपना था देखते-देखते आज बेगाना हुआ।

खुद को जैसे-तैसे समझाया।।

मेरे हमनवां तुझे काश! मैं भूल पाती

अगर ये वक्त कुछ देर के लिए ठहरा होता।

आज जानें क्या बात हुई......

दिल को एक बार फिर तु बहुत याद आया...........


Wednesday, February 14, 2018

नाम....😊

यूं तो कोई खास बात नहीं 
लेकिन तुम्हें नाम से पुकारना अच्छा नहीं लगता।।
जाने क्यूं तुम्हारा नाम होठों पर आते ही तुम बेगाने लगने लगते हो।
हां सच ही तो कि कोई खास बात नहीं, नाम न लेने के पीछे,
हुआ कुछ यूं कि पहले हमारा काम चल जाता था इक-दूजे का नाम लिए बगैर।।
फिर हम धीरे-धीरे दोस्त बनें, ऐसा महसूस किया हम दोनों ने।
तो फिर दोस्त से काम चल गया, फिर नाम नहीं लिया।।
फिर रफ्ता-रफ्ता प्रेम के बीज पल्लवित और पुष्पित हुए, तो भी बिना नाम के काम चल गया।।
कैसे? अरे आप -जनाब और सुनिए से।।😊
फिर हम अपनों के लिए अपने से धीरे -धीरे जुदा हुए।
लेकिन जाने से पहले न तुमनें लौटने का वादा किया और न ही मैंने भूलने का।
और आखिरी अलविदा भी तुम मुझे बिना नाम से पुकारे कह गए.....ओह हां ....
याद आया ....जुबां से नहीं निगाहों से..... 
यानि हम साथ थे तब भी अनाम थे, जुदा हुए तो भी अनाम ही थे,
 और अब हम इक-दूजे को महसूसते हैं तो भी तुम मेरे अनाम और मैं तुम्हारी अनामी....
 हां लेकिन आज जब तुमसे जुड़े दिल के हर तार को तोड़ना चाहा,
 और महज़ इक बार तुम्हारा नाम मेरे होठों पर आया,
तो इक पल में हम बेगाने हो गए, 
सैकड़ों तीर मेरे दिल पर चल गए,
जबकि तुम्हें नाम से न पुकारना कोई खास बात तो नहीं.....

Tuesday, February 13, 2018

डायरी के पन्नों से .....


-------इन बिखरते पन्नों सी जिंदगी है मेरी,
न जाने कब, कौन सा पन्ना उड़ेगा
और ठहर जाएगा कुछ पल के लिए
फिर कुछ कही और कुछ अनकही बातों का दौर चलेगा।।
न जाने कब, कौन सा किस्सा फिर बनेगा नया
और ठहर जाएगी जिंदगी कुछ पल के लिए।।

कल एक अजनबी ने पढ़ा था इक पन्ना मेरी जिंदगी का
और कहने लगा वाकया एक सुनों.....
मेरी चुप्पी को मेरी हां समझकर, वो कहने लगा किस्सा फिर नया...

एक बड़ी खूबसूरत सी थी जिंदगी,
खुशियों से भरी, चाहतों से भरी, हंसती-मुस्कुराती थी वो जिंदगी,
जाने क्या ऐसा फिर अचानक हुआ, 
दिल टूटा और इक आवाज सी आयी,
और फिर खो गई वो हंसी-मुस्कुराहट, वो खुशियां, वो चाहत.....
इससे आगे की कहानी कहोगी क्या तुम?
था ये दर्द क्यूं? बदली क्यूं जिंदगी?
सोचा कह दू मैं इससे आगे का वाकया और कर दूं ये अधूरा किस्सा पूरा,
फिर सोचा बिखरे हुए पन्नों को समेटना कैसा?
वाकया जिसने छेड़ा था, उससे राब्ता कैसा?
और क्यूं कह दूं कि ये बिखरे हुए पन्नें मेरी जिंदगी के हैं...
इन बिखरते हुए पन्नों सी जिंदगी है मेरी, जिंदगी है मेरी.....

Tuesday, January 30, 2018

डायरी के पन्नों से मेरी पहली कविता वर्ष 2010

ये जिंदगी भी हाय! कितना हमें सताये,
जब गम थे बहुत ज्यादा, हम और मुस्कुराए।।
ना जान सका कोई, न कोई समझ पाए,
ये राज है कुछ ऐसा, जिसे कोई हमराज ही समझ पाए।।
पर उसको भी यारों अब वक्त कहां इतना,
जो वो पास आये और अश्क समझ पाए।।
फिर भी ये नैन देखे उसी का रास्ता,
यह दिल पुकारे, उसको दे मोहब्बत का वास्ता।।
उनके सहारे देखे हमने ख्वाब कुछ अजीज थे,
दिल के मेरे हमराज वो , मेरी आखिरी उम्मीद थे।।
वो थे आरजू, जुस्तजू, मेरी तकदीर थे,
दिल के कोने में बसी थी कभी जो, वो मेरे इश्क की वही तस्वीर थे,
जो बन के मिट गई थी हाथों से मेरे, वो वही लकीर थे।।
हम जानते थे ये है दस्तूर जिंदगी का,
फिर भी न जानें क्यूं सपने थे कुछ सजाए।।
ये जिदंगी भी हाय! कितना हमें सताये,
जब गम थे बहुत ज्यादा, हम और मुस्कुराये, हम और मुस्कुराए, हम और मुस्कुराये.......

Sunday, January 21, 2018

आज फिर पतझड़ की बात हुई बसन्त से...
... फिर उसने बयां किये अपने जज़्बात। 

कुछ बातें वो पूरी कह गया कुछ के थे बंद अल्फाज़..
 ...बसन्त ने खोला फिर पतझड़ का राज और पढ़ने लगा उसका वो पत्र बेहद खास....💐

सुनों प्रिये ,

मैं आज दुखी हूं, जाना होगा सबसे दूर

किंतु ये सोचकर मुस्कुराता हूं कि तुम आये तो लाओगे सबके उदास चेहरों पर खुशियाँ।
....भर दोगे दामन खुशियों से, हर ओर बिखेरेगी तुम्हारी रंगत।

कही सरसों के खेत लहलहायेंगे तो कही फूलों पर बिखरेगी मुस्कान।।

ये धरा खिलखिला उठेगी अब....महक उठेंगी दिशाएं।

पक्षियों के कलरव का गुंजेगा तराना.....तुम्हारे स्वरों का जब निकलेगा खज़ाना।

कि पपीहे पी को पुकारे हैं अपने बागों में,

मयूर मस्त होकर नाचता है बागों में,

बहारों फूल बरसाओ कि फिर बसन्त आया है।।

अब मेरी कोई जगह नहीं..….

मैं जा रहा हूं बसन्त मित्र

....अब अगले बरस ही आऊंगा।

तुम रखना सबका ख्याल..

और बिखेरना अपनी रंगत।
सुनों, मित्र किसी के आने से खुशी और जाने से गम तो स्वाभाविक है लेकिन
......मेरे जाने से तुम निराश मत होना
क्यूंकि जब मैं जाऊंगा

तब ही तुम आओगे अपनी रंगत लेकर।।

मेरे जाने के बाद ही तो तुम महका सकोगे सबका दामन

बिखरेगी तुम्हारी खुशबू।।

उसका रूठना