Wednesday, May 2, 2018

पर रुक्मणी -कृष्ण कहै नहीं कोई......

मेरे प्रेम की अविचल धार तुम
तुम ही तो हो मेरी धारा।।
सोचो जरा गर तुम ही न होते
तो होती कैसी ये धारा
ठहरो जरा तो मैं ही बता दूं अपनी बीती तुमको सुना दू
जब तुम नहीं थे
तो ये दुनियां नहीं थी
ना ही था ये नदियों का कलकल बहता हुआ संगीत कहीं
पक्षी भी चुप थे
भंवरे भी गाते नहीं थे संगीत
पायल की रुनझुन भी जाने क्यूं गुम थी
और गुम थी चूड़ियों की खनखनाहट।।
फिर एक दिन कोई दस्तक हुई
पक्षी लगे फिर से चहचाहने,
भंवरे भी थे लगे गुनगुनाने।।
पायल भी मेरी हुई बावरी सी, जो बजती ही जाने लगी।।
हाथों की चूड़ी खनकने लगी फिर
सखियाँ मेरी फिर लगी थी चिढ़ाने
तेरा नाम लेकर लगी गुनगुनाने
फिर एक बैरन ने मुझसे पूछा
पिया तेरे कबसे न आये बावरी
बता दे हमसे भी है क्या छिपा री
नज़रे झुकाएं, अज़ी पलकें बिछाएं तुम्हारी ही जुस्तजू में खड़े हम सोच रहे थे क्या कुछ कहे हम कि
बैरी ज़माना तुम्हे कुछ कह न पाए,
तभी एक छंद मुझे याद आया वही मैने सबको कह सुनाया
जो हरि मथुरा जाय बसे
हमरे जिय प्रीत बनी रही सोई।।
उध्दव बड़ो सुख यही हमें कि निकी रहे वई मूरत दोई।।
हमरे ही नाम की छाप परी
अन्तरबीच अहै नहीं कोई।।
राधा-कृष्ण सभी तो कहै
पर रुक्मणी -कृष्ण कहै नहीं कोई।

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उसका रूठना